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देव आदि चारों गतियों में गमन करता है, वे ही जीव की पर्यायें हैं। द्रव्यदृष्टि से जीव नामक पदार्थ एक श || होने पर भी पर्याय भेद से अनेक विकल्पों से विभक्त होता है।
यह मनुष्य मरकर, मृग होता है, मृग से देव होता है; देव वृक्ष हो जाता है। मनुष्य, मृग, देव एवं वृक्ष के भेद से जीव की चार पर्यायें हुईं; परन्तु सबमें भ्रमण करनेवाला जीव एक ही है। अणुमात्र देह को धारण करनेवाला जीव ही हजार योजन प्रमाण के शरीर को धारण कर लेता है - ऐसे छोटे-बड़े रूप में संकोचविस्तार करने की क्षमता जीव में है। ___ यह सब कथन किसी एक जीव के लिए या जीवतत्त्व की अपेक्षा नहीं, बल्कि समस्त संसारी जीवों की अपेक्षा है। समस्त कर्मों से भेदविज्ञान करके जब जीव को देखते हैं तो वहाँ यह कोई झंझट नहीं है।
देखो, स्फटिक रत्न तो बिल्कुल शुभ्र है, उसके पीछे अन्य रंगों के रखने पर जिसप्रकार उसका रंग बदल जाता है, ठीक इसीप्रकार द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म रूप तीन शरीरों के संबंध से आत्मा कल्मष (मैली) होकर संकटों में पड़ जाता है। यद्यपि यह आत्मा शरीर में रहता है; परन्तु इस आत्मा के कोई शरीर नहीं है। ज्ञान ही इसका शरीर है। आत्मा इन लौकिक शरीरों में रहकर भी उनसे अस्पृष्ट है, अछूता है।
मांस, रक्त, चर्ममय प्रदेश में रहकर भी जिसप्रकार गोदुग्ध रक्त-मांसमय नहीं है। साधु संतों के द्वारा भी सेवनीय है, उसीप्रकार मांस-अस्थि-चर्म आदि कर्मरूपी शरीर में रहकर भी आत्मा परम पावन है, शुद्ध है, निर्मल है। यह आत्मा कोटि सूर्य व चन्द्र के प्रकाश से भी अधिक चैतन्यप्रकाशमय है, जिसप्रकार कर्मों से आच्छादित रहकर भी अपने अस्तित्व का बोध स्वयं कर सकता है, दूसरों को कराने में निमित्त बन सकता है। जिसप्रकार बीज में वृक्ष छिपा है, उसीप्रकार इस सदेह बहिरात्मा में देहरहित परमात्मा विराजमान है, देह-देवालय में कारण परमात्मा विराजमान है। हे रविकीर्तिराज! कर्मों के नाश होने पर तो सभी कार्य परमात्मा बनते हैं।
प्रश्न - हे प्रभो! क्या ये पाँचों शरीर सभी जीवों के होते हैं ?
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