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बल्कि पंचेन्द्रिय के नाम से प्रसिद्ध पंचाग्नि इष्ट पदार्थों के प्रदान करने पर बढ़ती है; परंतु उनसे उपेक्षित होकर | आत्मा में मग्न होने पर वह पंचाग्नि अपने आप बुझती है।
स्नान, भोजन, गंध, पुष्प, आभूषण, नृत्य, गान आदि आत्मा को तृप्त नहीं कर सकते हैं। आत्मा की तृप्ति आत्मध्यान में ही हो सकती है; इसलिए अल्पसुख की अपेक्षा नहीं करना चाहिए। यदि संसार के मोह | को छोड़कर ध्यान का अवलंबन करें तो वह ध्यान आगे जाकर अवश्य मुक्ति को प्रदान करेगा। इसलिए
आज इधर-उधर के विचार छोड़कर दीक्षा को ग्रहण करना चाहिए। इस बात को सुनते ही सब लोगों ने हर्षपूर्वक समर्थन किया। उन्होंने कहा “हम सब कैलाशपर्वत पर चलें, वहाँ पर मेरु पर्वत के समान उन्नत रूप से विराजमान भगवान आदिप्रभु के चरणों में पहुँचकर दीक्षा लेवें।"
इस बात को सुनते ही सब कुमार आनंद से उठ खड़े हुए। उनमें से कोई कहने लगे कि “हम पिताश्री भरतजी के पास चलकर उनकी अनुमति लेकर दीक्षा लेने के लिए जायेंगे।" दूसरे कोई कहने लगे कि “यदि पिताजी के पास गये तो दीक्षा के लिए अनुमति ही नहीं मिल सकती, वे कभी हाँ कहेंगे ही नहीं।" ___अन्य कोई कहने लगे कि “पिताजी को एकबार समझा-बुझाकर आ भी जायें, परन्तु माताओं की अनुमति पाना तो असंभव ही है, इसलिए उनके पास जाना उचित नहीं है। हम हमारी माताओं के पास जाकर कहें कि दीक्षा के लिए अनुमति दीजिए, तो क्या वे सीधी तरह से यह कहेंगी कि 'बेटा! जाओ, तुमने बहुत अच्छा विचार किया है?' कभी नहीं, ऐसा कभी हो ही नहीं सकता। उलटा वे हमारे गले लगकर रोयेंगी। फिर हमारा दीक्षा हेतु गृह छोड़कर जाना मुश्किल हो जायेगा। नारियाँ स्वभावतः भावुक तो होती ही हैं, फिर मातृ हृदय का तो कहना ही क्या है ?
देखो, इस संसार की विचित्रता ! पुत्र पिता हो जाता है। पिता उसी जन्म से अपने पुत्र का ही पुत्र बन सकता है। पुत्री माता हो जाती है। उसीप्रकार जनम से ही माता पुत्री की पुत्री बन जाती है। बड़ा भाई छोटा || सर्ग भाई बन जाता है। स्त्री पुरुष होती है, पुरुष स्त्री होता है। यह सब कर्म का विचित्र चरित है। शत्रु कभी मित्र ||१७
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