________________
REFE
स्त्रियों के पाश में जबतक यह मन नहीं फंसता है तबतक उसमें एक विशिष्ट तेज रहता है। उस पाश में || फंसने के बाद धीरे-धीरे यह मनुष्य जीवन दीपक की लौ में झुलसे पतंगे की भांति झुलस जाता है, नष्ट हो जाता है। हथिनी को देखकर जिसप्रकार हाथी फंसकर बड़े भारी खड्डे में पड़ता है एवं जीवनभर अपने जीवन की स्वतंत्रता को खो देता है, उसीप्रकार स्त्रियों के मोह में पड़कर भवसागर में फंसनेवाले अविवेकी | आँखों के होने पर भी अंधे हैं। मछली जिसप्रकार जरा से मांसखंड के लोभ में फंसकर अपने प्राणों को खोती है उसीप्रकार स्त्रियों के सुखाभास के लोभ में फंसकर क्या अमूल्य मानव जीवन को खोना है ?
पहले तो स्त्रियों का संग ही भाररूप है। उसमें भी यदि संतान भरण-पोषण की जिम्मेदारी हो जाय तब | तो कहना ही क्या है?" - इसप्रकार वे कुमार विचार कर संसार के जंजाल से विरक्त हो गये।
सुख के लिए स्त्री और पुरुष भले ही छुपकर रतिक्रीड़ा करते हैं, परन्तु गर्भ रहने के पर तो वह बात छिपी नहीं रहती है। गर्भिणी का मुख म्लान हो जाता है, शर्म से माथा नीचा रहता है। प्रसववेदना से बढ़कर लोक में कोई दुःख नहीं है। जिस लौकिक सुख का फल ऐसा भयंकर दुःख है, उस सुख के लिए धिक्कार है। एक बूंद के समान सुख के लिए पर्वत के समाने दुःख को भोगने के लिए यह मनुष्य तैयार होता है, यह आश्चर्य है। यदि दुःख के कारणभूत इन पंचेन्द्रिय विषयों का परित्याग करें तो संसार सागर बूंद के समान रह जाता है, परन्तु अविवेकीजन इस बात का विचार नहीं करते हैं। __ स्वर्ग की देव-देवांगनाओं के सुन्दर शरीर के संसर्ग से भी इस आत्मा को तृप्ति नहीं हुई तो फिर इस | दुर्गंधमय शरीर को धारण करनेवाले नर-नारियों को संभोग से क्या तृप्ति हो सकती है ? कुछ भी नहीं।
जिनको प्यास लगी है वे यदि नमकीन पानी को पीवें तो जिसप्रकार उनकी प्यास बढ़ती ही जाती है, उसीप्रकार अपने कामविकार की तृप्ति के लिए यदि नर-नारी परस्पर भोग भोगें तो वह विकार और भी बढ़ता जाता है, तृप्ति नहीं होती। जिसप्रकार अग्नि पानी से बुझती है और घी से बढ़ती है। उसीप्रकार कामाग्नि सच्चिदानंद आत्मरस से बुझती है और परस्पर के संसर्ग से बढ़ती है - यह नियम है। केवल कामाग्नि ही नहीं, ॥ १८
5 FF NFo_EEPF445