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६२|| है। इस संसार में वही पुरुष श्रेष्ठ है, वही कृतार्थ है, उसी का जीवन धन्य है, जिसके हृदय में निर्दोष समकित
| सूर्य प्रकाशमान है। यह दुर्गति को रोकनेवाला है, यही स्वर्ग का सोपान और मोक्ष महल का द्वार है। हे | भव्य - ऐसे सम्यग्दर्शन को तुम धारण करो।"
इसप्रकार आर्य पुरुष को संबोधन के बाद वे मुनिराज आर्या से बोले - "हे माता! तुम संसार समुद्र | से पार होने के लिए सम्यग्दर्शन रूप नौका को ग्रहण करो । सम्यग्दर्शन होने के बाद जीव पराधीन स्त्री पर्याय
में जन्म नहीं लेता। नीचे के छह नरकों में नहीं जाता। भवनवासी, व्यन्तर आदि नीचे देवों में उत्पन्न नहीं | होता । तुम दोनों पाँच भवों को धारण करके ध्यानाग्नि में कर्मों को भस्म करके सिद्धपद प्राप्त करोगे। लोक में १. सजाति, २. सद्गृहस्थता (श्रावक के व्रत), ३. पारिव्रज्य (मुनियों के व्रत), ४. सुरेन्द्र पद, ५. राज्यपद, ६. अरहंत पद, ७. सिद्धपद - ये सात परमस्थान हैं, उत्कृष्ट स्थान हैं। सम्यग्दृष्टि जीव क्रम-क्रम से इन परम स्थानों को प्राप्त होता है। आप लोग कुछ पुण्य भवों को धारण कर ध्यानरूपी अग्नि से समस्त कर्मों को भस्म कर परमपद प्राप्त करोगे।
इसप्रकार प्रीतंकर आचार्य के वचनों को सुनकर आर्य (वज्रजंघ) ने अपनी स्त्री के साथ-साथ सम्यग्दर्शन प्राप्त किया। __ वह वज्रजंघ जन्मान्तर संबंधी प्रेम से प्रीतंकर मुनि के चरणों को आँखें फाड़-फाड़कर देख रहा था। मुनिराज आशीर्वाद देकर चले गये।
आर्य और आर्या दोनों ने प्रीतंकर के उपदेश से प्रेरणा प्राप्त कर समस्त कर्तृत्वबुद्धि के भार को भाड़ में झोंककर अन्तर्मुख होकर अपने परमात्मतत्त्व का अवलोकन किया। राग-रंग एवं भेद से भी पार होकर अभेद-एक-अखण्ड परमात्मतत्त्व का अवलोकन किया और अभेद एक-अखण्ड परमात्मतत्त्व के शान्तरसमय ज्ञानधारा का वेदन किया। क्षण भर को उनका उपयोग सर्वविकल्पों से हटकर आत्मा में ही स्थिर हो गया। इसप्रकार वे आर्य दम्पत्ति अत्यन्त तृप्त हुए। ठीक ही है - अपूर्व वस्तु का लाभ प्राणियों को संतोष का कारण होता ही है।
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