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॥ बड़े-बड़े मकानों के झरोखों में खड़ी नगर की नारियों द्वारा छोड़ी गई पुष्पांजलि महाराजा भरत पर | पड़ रही थी। हे राजन! आपकी जय हो, विजय हो आदि मंगल आशीर्वाद और शुभकामनायें प्रगट करते हुए नर-नारियाँ भरत के प्रति अपनी श्रद्धा और प्रेम प्रदर्शित कर रहीं थीं। चक्रवर्ती की सेना नगर से बाहर निकल कर चारों ओर फैल गई।
भरतजी ने सबसे पहले पूर्व दिशा में प्रयाण किया। सूर्यमण्डल के समान दैदीप्यमान और चारों ओर से देवों के द्वारा घिरा चक्ररत्न आकाश में भरतेश के आगे-आगे चल रहा था। जिसप्रकार मुनियों का समूह गुरु की इच्छानुसार चलता है, उसीप्रकार निधियों के स्वामी भरतजी की सेना चक्ररत्न के अनुसार चक्ररत्न के पीछे-पीछे चल रही थी। दण्डरत्न को आगे कर सेनापति सबसे आगे चल रहा था और वह ऊँचे-नीचे दुर्गम वनस्थलों को लीलामात्र में समतल-सुगम करता जाता था। मार्ग में प्रजापति भरत ने दिशाओं को अलंकृत करनेवाली शरदऋतु की शोभा देखी।
यात्रा करते धीर-वीर भरत सेना सहित गंगानदी के समीप पहुँचे । जो चौदह हजार सहायक नदियों से सहित हैं, जो हिमवान पर्वत के द्वारा समुद्र के लिए भेजी गई है। शरदऋतु के द्वारा जिसकी शोभा बढ़ गई है। ऐसी गंगा नदी को देखकर राजा भरत ने अनुपम आनन्द का अनुभव किया। वह गंगा ठीक जिनेन्द्र की कीर्ति के समान थी। जिसप्रकार जिनेन्द्र की कीर्ति ने समस्त दिशाओं को व्याप्त किया है, उसीप्रकार गंगा नदी ने पूर्व दिशा को व्याप्त किया है, जिनेन्द्र की कीर्ति ने रज अर्थात् पापों का नाश किया, उसीप्रकार गंगा ने भी रज अर्थात् धूलि को नाश किया था।
इसप्रकार उस गंगा नदी को देखकर नवनिधियों के स्वामी भरत परम प्रीति को प्राप्त हुए।
सारथी ने भरतजी को गंगानदी पर दृष्टि डाले हुए देखकर उन्हें प्रसन्न करने के लिए कहा - "हे महाराज! यह गंगा नदी भगवान ऋषभदेव की वाणी के समान प्रतीत होती है। जिसप्रकार ऋषभदेव की वाणी समस्त || संसार को आनन्दित करती है उसीप्रकार यह गंगा नदी भी समस्त लोक को आनन्दित करती है।
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सर्ग
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