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मुनिराज से संयम धारण कर लिया। मैं दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओं को भाता हुआ, आयु के अन्त में अहमिन्द्र हुआ और कहाँ से चयकर यहाँ चक्रवर्ती श्रीपाल का पुत्र गुणपाल हुआ हूँ।'
गुणपाल इसप्रकार विचार कर ही रहे थे कि कुछ लोकान्तिक देव आये और उनकी वैराग्य भावना को पुष्ट किया। इसप्रकार प्रबोध को प्राप्त हुए इस मोहजाल को तोड़कर तपश्चरण करने लगे और घातिया कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान प्रकट करके केवली हो गये।
चक्रवर्ती श्रीपाल ने गुणपाल केवली की पूजा की और गृहस्थ तथा मुनि संबंधी - दोनों प्रकार का धर्म सुना । तदनन्तर बड़ी विनय के साथ अपने पूर्वभव का संबंध पूछा - तब भगवान की वाणी में जो कुछ आया था, उस कथा को सुलोचना ने जयकुमार से इसप्रकार कहा - ___“विदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी का राजा यशपाल था। उसी नगरी के सेठ पुत्र सर्वसमृद्ध का विवाह सेठ धनंजय की छोटी बहिन धनश्री से हुआ। उन दोनों के एक सर्वदयित नाम का पुत्र व एक सर्वदयिता नाम की पुत्री हुई। सेठ सर्वसमृद्ध की छोटी बहन देवश्री का विवाह सागरसेन से हुआ। जब सर्वदयित युवा हुआ तब उसका विवाह मामा (धनंजय) की पुत्री जयदत्ता और फूफा (सागरसेन) की पुत्री जयसेना से हुआ। उसके (सर्वदयित) के फूफा (सागरसेन) के सागरदत्त व समुद्रदत्त नामक दो पुत्र एवं एक पुत्री सागरदत्ता
और थे। उसके (सर्वदयित) फूफा की छोटी बहिन सागरसेना के भी एक पुत्र वैश्रवणदत्त और एक पुत्री वैश्रणवदत्ता थी। वैश्रवणदत्ता का विवाह अपने मामा (सागरसेन) के पुत्र सागरदत्त से हुआ और वैश्रवणदत्त का विवाह अपने मामा (सागरसेन) की पुत्री सागरदत्ता से हुआ। इसीप्रकार सर्वदयित की बहिन सर्वदयिता का विवाह उसके फूफा (सागरसेन) के पुत्र समुद्रदत्त से हुआ । इसप्रकार सब सुख से रह रहे थे।
एक दिन सर्वदयित के मामा सेठ धनंजय भेंट लेकर राजा यशपाल के दरबार में गये, राजा ने भी उनका सम्मान करके यथायोग्य बहुत-सा सुवर्ण आदि धन दिया। यह देखकर सेठ पुत्रों को भी धन कमाने की इच्छा हुई और वे धन कमाने के लिए चल पड़े। वे नगर के समीप एक गाँव में ठहर गये । रात्रि में समुद्रदत्त | १७
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