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अष्टाह्निका पूजा - जो पूजा इन्द्रों द्वारा की जाती है वह इन्द्रध्वज या अष्टाह्निका पूजा है। विशुद्ध आचरण द्वारा खेती आदि करना ‘वार्ता' कहलाती है तथा दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और | अन्वयदत्ति - ये चार प्रकार की दत्ति होती हैं। अनुग्रह करने योग्य प्राणियों का दयापूर्वक दान देना दयादत्ति है। मुनियों को आहार देना पात्रदत्ति है। साधर्मी गृहस्थ को, श्रद्धा से उसकी आर्थिक सहायता करना, वाहन आदि देना समदत्ति है। आत्मकल्याण हेतु गृहत्याग करने के पूर्व अपने वंश को आगे सुचारु चलते रहने के लिए पुत्र को अपना उत्तरदायित्व व उत्तराधिकार सौंप देना अन्वयदत्ति या सकलदत्ति है।
वर्णभेद आचरण के आधार पर - यद्यपि जाति नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक ही है, तथापि आजीविका और आचरण के भेद से होनेवाले भेद के कारण वह चार प्रकार की हो गई है। व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, अपनी और राज्य शासन की रक्षा हेतु शस्त्र धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक व्यापार द्वारा धन कमाने से वैश्य और तीनों वर्गों की सेवावृत्ति का आश्रय लेने से मनुष्य शूद्र कहलाये।
हिंसादि दोषों के पूर्णत्याग को महाव्रत तथा एकदेश त्याग करने को अणुव्रत कहते हैं। स्थूल व सूक्ष्म सभी प्रकार के हिंसादि पाँचों पापों का पूर्ण त्याग करना महाव्रत है और स्थूल हिंसादि पाँचों पापों से निवृत्त होना अणुव्रत है। इन व्रतों के ग्रहण करने की प्रवृत्ति ही दीक्षा है। इनका आचरण करनेवाला ही कर्मणः ब्राह्मण है। ___ अपने सत्कर्मों से ब्राह्मणत्व को प्राप्त जो जैन धर्मानुयायी ब्रह्म स्वरूप निज शुद्धात्मा को जानते हैं, वे जैन भी कर्मणः ब्राह्मणवत ही हैं। कहा भी है - "य: ब्रह्मां जानाति सः ब्राह्मणः" इस उक्ति के अनुसार जो आत्मा के स्वरूप को समझते हैं, वे ब्राह्मण हैं तथा जो अहिंसक आचरण करते हैं, चार अनुयोग रूप वेदों के रहस्य को जानते हैं। वे वर्ण से वैश्य होकर भी कर्मणः ब्राह्मण ही हैं।
जो मलिन आचार-विचार के धारक हैं, पाप कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं, दुर्व्यसनों का सेवन करते हैं, वे सर्ग ब्राह्मण कुल या जाति में जन्म लेकर भी जन्म से ब्राह्मण कहला कर भी कर्मणः ब्राह्मण नहीं शूद्र हैं। ॥ १६