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रखना । क्षत्रियों की कुलाम्नाय में राजा ऋषभदेव ने सर्वप्रथम क्षत्रिय वर्ण स्थापित किया था। उससमय | कर्मभूमि प्रारंभ हो जाने से प्रजा दो प्रकार की पायी जाती थी। एक तो वह जिसकी रक्षा करनी थी और दूसरी वह जो रक्षा करने में तत्पर थी। जो प्रजा की रक्षा करने में तत्पर थे, उसी की वंश परम्परा को क्षत्रिय कहा गया। यद्यपि यह वंश बीज-वृक्ष के समान अनादिकाल की सन्तति से अनादि का है, तथापि क्षेत्र, काल की अपेक्षा पुन: पुन: स्थापन होता रहा है। न्यायपूर्वक वृत्ति रखना ही क्षत्रियों का योग्य आचरण है।
धर्म का उल्लंघन न कर धन कमाना, रक्षा करना, बढ़ाना और सत्पात्रों को दान देना ही क्षत्रियों का न्याय है तथा वीतराग धर्म के अनुसार प्रवृत्ति करना संसार में सबसे श्रेष्ठ न्याय माना गया है। देखो, ऐसे क्षत्रियपद की प्राप्ति रत्नत्रय के प्रताप से ही होती है; इसीलिए बड़े-बड़े वंशों में उत्पन्न हुए राजा लोग लोकोत्तम पुरुष माने गये हैं। ये लोग स्वयं धर्ममार्ग में स्थित रहते हैं तथा अन्य लोगों को भी स्थित रखते हैं।
तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने अपने गृहस्थ काल में क्षत्रियधर्म का कर्तव्यबोध कराते हुए सभी क्षत्रियों को वीतरागी धर्म की महिमा बताते हुए उन्हें अहिंसामयी आर्हतमत का पालन करने का संदेश दिया था। रत्नत्रय की मूर्ति होने से जिसप्रकार अन्य तीर्थंकर भी भगवान ऋषभदेव के धर्मक्षेत्र के वंशज होंगे, उसीप्रकार जो भी व्यक्ति तीर्थंकर ऋषभदेव के द्वारा बताये गये वीतराग धर्म का आचरण करेंगे, वे सब उनके अनुयायी भी एकप्रकार से उनके वंशज ही हैं।
सुबुद्धि की परिभाषा बताते हुए राजा ऋषभदेव ने कहा था- "इस लोक तथा परलोक संबंधी पदार्थों के हित-अहित का ज्ञाना सुबुद्धि है। मिथ्याज्ञानरूप अविद्या का नाश होने से ही सुबुद्धि में वृद्धि और उसकी रक्षा होती है। अतत्त्व में ज्ञान का लगाना ही मिथ्याज्ञान या अविद्या है। जो अरहंतदेव का कहा हुआ वस्तुस्वरूप है, वही तत्त्व है। राजविद्या का ज्ञान होने से इस लोक संबंधी पदार्थों में बुद्धि दृढ़ होती है और धर्मशास्त्र का परिज्ञान होने से इसलोक व परलोक - दोनों लोक संबंधी पदार्थों में जो बुद्धि दृढ़ हो जाती है, उसे ही वस्तुतः सुबुद्धि कहते हैं।
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