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॥ क्षत्रियों को स्वयं की सुरक्षा के लिए अनजान साधु वेषधारी व्यक्तियों की बातों में नहीं आना चाहिए। || ऐसे वेशधारी अनजान साधु लोगों से सदा दूर ही रहना चाहिए। ऐसे लोगों के सम्पर्क में अपना महत्त्व तो
कम होता ही है, कभी धोखा भी हो सकता है, संभव है कोई द्वेष रखनेवाला पाखंडी व्यक्ति विषपुष्प रख | दें अर्थात् अनिष्ट कारक वस्तु से शारीरिक क्षति कर दे, वशीकरण मंत्र से वश में कर ले। | राग-द्वेष आदि दोषों से रहित होने के कारण अर्हन्त देव का आप्त भी कहते हैं। जो वीतरागी, सर्वज्ञ, | हितोपदेशी हैं, परमेष्ठी हैं, परमात्मा हैं, वे ही आप्त हैं। आप्त के द्वारा कहे हुए क्षात्रधर्म का स्मरण करते हुए | क्षत्रियों को अनाप्त या अप्रमाणित पुरुषों के द्वारा कही हुई बातों पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
इस लोक और परलोक संबंधी उपायों से आत्मा की रक्षा करना चाहिए। विष, शस्त्र आदि से होनेवाली हानि से बचनेरूप इस लोक संबंधी रक्षा तो प्राय: सब समझते हैं; परन्तु परलोक संबंधी रक्षा सच्चे धर्म द्वारा ही हो सकती है। जो कि वीतरागभावरूप ही है। यह बहुत कम लोग जानते हैं। अत: वीतराग धर्म में एकचित्त होकर भविष्य काल में आनेवाली परलोक की विपत्तियों का प्रतिकार भी करना चाहिए।
सभी स्वामियों को ज्ञातव्य है कि उन्हें अपने सेवकों से कैसा व्यवहार करना चाहिए। १. कठोर दण्ड देनेवाला या कठोर व्यवहार करनेवाला स्वामी अपने सेवकों को उद्विग्न कर देता है, उसकी यह उद्विग्नता स्वामी के प्रति श्रद्धा और सेवा की भावना को कम कर देती है, सेवक को उदर पोषण के लिए सेवा कार्य करना तो मजबूरी है, पर स्वामी के रुखे या कठोर व्यवहार से वह काम उसे भारभूत लगने लगता है, इसकारण काम बिगड़ने की संभावना तो बढ़ ही जाती है। परस्पर संबंधों में भी कटुता आ जाती है, जो दोनों के लिए अहितकर है। २. स्वामी को चाहिए कि वह अपने अस्वस्थ सेवक को उचित औषधि दिला कर उसके दुःख को दूर कर उसकी श्रद्धा का पात्र बने। ३. सेवक की दरिद्रता को भी स्वामी द्वारा सहानुभूतिपूर्वक दूर करना चाहिए। इससे सेवक की स्वामी के प्रति समर्पण की भावना बलवती होती है। ४. स्वामी को चाहिए कि वह सेवक के काम से प्रसन्न होकर उसे समय-समय पर पुरस्कार भी देवे। जो स्वामी सेवक के अच्छे काम की प्रशंसा करते हैं, उन्हें प्रोत्साहित करते हैं, भृत्य उन पर सदा अनुरक्त रहते हैं और कभी भी || १६
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