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इसप्रकार इन उपायों द्वारा चारों प्रकार की हिंसा से बचने के बावजूद यदि आरंभ और उद्योग में किंचित् जीवघात हो भी जाता है तो उसे आगम में अशक्यानुष्ठान कहकर क्षम्य अपराध माना है। सम्पूर्ण अहिंसक तो गृहस्थ हो ही नहीं सकता; अन्यथा मुनिव्रत लेने की आवश्यकता भी क्या रहेगी ?
प्रश्न - यह अशक्यानुष्ठान क्या है ? कृपया इसे भी किसी उदाहरण से स्पष्ट करें ?
उत्तर - जिस पाप क्रिया को रोक पाना संभव न हो, उस असमर्थता को अशक्यानुष्ठान कहते हैं। जैसे भोजन के चौके में कुत्ता, बिल्ली, चूहा और मक्खी एक जैसे मांसाहारी और गंदगी पसन्द प्राणी, एक जैसी | अशुद्धि फैलाते हैं, फिर भी कुत्ते को जाली का आधा फाटक लगाकर रोका जा सकता है अत: उसके चौके में प्रवेश मात्र से चौके की अशुद्धि मानी जाती है और उस भोजन सामग्री को हटाकर पुन: बनाई || जाती है। बिल्ली को फाटक से नहीं रोक सकते, वह खिड़की आदि के रास्ते से भी आ जाती है। अत: उसके चौके में प्रवेश से नहीं, बल्कि उसके द्वारा वस्तु को झूठा करने से अशुद्धि मानी जाती है, वह दूध को जूठा करेगी तो दूध फैंकेगे, सब सामग्री नहीं और चूहा मोरी आदि किसी भी रास्ते से, कहीं से भी आ सकता है अत: यदि वह आटे को जूठा करेगा तो आटे के उस हिस्से को नोंचकर फैंकेंगे, पूरा आटा नहीं। मक्खी के आटे पर बैठने पर-जूठा करने पर आटा नोचते भी नहीं, मात्र मक्खी को उड़ा देंगे। घी के पीपे में मक्खी मर भी जाये तो घी से भरा पूरा पीपा नहीं, मात्र मक्खी ही निकाल कर फैंकी जाती है, बस इसी मजबूरी का नाम अशक्यानुष्ठान है। इसमें जिसप्रकार की अशुद्धि का त्याग गृहस्थ से नहीं हो सकता है, वह अशक्यानुष्ठान है।
एक दिन सभा के बीच में सिंहासन पर विराजमान भरतजी ने एकत्रित हुए राजाओं को क्षत्रिय धर्म का उपदेश दिया। उन्होंने कहा - "हे महानुभावो! आप लोगों को महाराजा ऋषभदेव ने दुःखी प्रजा की रक्षा करने को नियुक्त किया है। इस दृष्टि से आप लोगों के पाँच प्रमुख कार्य हैं। १. कुल का पालन-पोषण एवं कुलाम्नाय की रक्षा करना, २. सुबुद्धि (ज्ञान) में वृद्धि करना, ३. स्वयं को सुरक्षित रखना, ४. सेवकों के प्रति अच्छा व्यवहार एवं रक्षा करना और ५. परस्पर सामञ्जस्य स्थापित करना अर्थात् एकता बनाकर || १६)
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