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मेरा विवाह अन्य से कर दिया जाय।' संयोग से हुआ भी यही भवदत्त समय सीमा के कहे अनुसार नहीं | लौटा और मेरा विवाह जयकुमार के पूर्वभव के जीव सुकान्त से हो गया।
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भवदत्त जब लौटा और हमारे विवाह के बारे में उसे ज्ञात हुआ तो वह क्रोधित तो हुआ ही, उसने हमें अर्थात् सुकान्त और रतिवेगा को मार डालने का निर्णय कर लिया। उसके इस निर्णय को जानकर हम (सुकान्त और रतिवेगा) मृत्युभय से भयभीत होकर वहाँ से अज्ञातवास में चले गये। वहाँ पहले से ही ठहरे | शक्तिषेण राजा के सान्निध्य में हम दोनों सुख से रहने लगे। वहाँ देवयोग से एक चारणऋद्धि धारी मुनिराज ना | के दर्शन हुए। राजा ने मुनिराज को आहार दिया। उसे देख हम (सुकान्त और रतिवेगा दम्पत्ति) बहुत हर्षित हुए। धर्मध्यान की साधना करते हुए हम वहाँ रह रहे थे कि एक दिन भवदत्त वहाँ आ पहुँचा और हमें जला कर भस्म कर दिया ।
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सुकान्त अर्थात् जयकुमार का जीव तीसरे पूर्वभव में पूर्वविदेह में रतिवर नामक कबूतर एवं रतिवेगा ( मेरा ) | जीव रतिषेणा नामक कबूतरी हुआ । वहाँ भी हम दोनों ने (उस भव में) मुनिराज के चरणकमलों का स्पर्श किया एवं उनके आहारदान की हर्षित होकर अनुमोदना की। उस भव में वह भवदेव का जीव बिलाव बना मा और उसने हम दोनों को मार डाला ।
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देखो, संसार की विचित्रता! निष्कारण बैरी बनकर उस भवदेव के जीव ने बारम्बार हमारा घात किया । औ यद्यपि हमारी कोई गलती थी; उसके कहे अनुसार मेरे पिता ने मेरा विवाह सुकान्त के साथ किया था; फिर भी उसने बैर बांध लिया। कोई किसी का अहित करे, तब तो उसके बदले की भावना का कहना ही क्या | है ? अत: हमें कभी किसी से बैर भाव नहीं रखना चाहिए और कभी किसी का अहित नहीं करना चाहिए । उस कबूतर की योनि के बाद जयकुमार का जीव दूसरे पूर्वभव में विद्याधर हिरण्यवर्मा एवं मैं ( सुलोचना) कबूतरी के भव के बाद प्रभावती हुई। वहाँ भी हम दोनों का विवाह हुआ। संयोग से उस प्रभावती के भव में मैंने एक कबूतर के जोड़े को उड़ते देखा और उसी प्रभावती के भव में मुझे जातिस्मरण ज्ञान हो गया । | तत्पश्चात् मैंने और हिरण्यवर्मा ने एक चारणऋद्धि धारी मुनि के पास अपने पूर्वभव का वृतान्त सुना ।
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सर्ग