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सेनापति जयकुमार और धर्मपत्नी सुलोचना हस्तिनापुर के महाराजा सोमप्रभ के पुत्र एवं दानतीर्थ के प्रवर्तक राजा श्रेयांस के भतीजे जयकुमार चक्रवर्ती भरत के प्रमुख सेनापति थे। वे शूरवीर के साथ धर्मवीर भी थे। वे तीर्थंकर ऋषभदेव के ७२वें गणधर हुए। उनके पूर्व भवों की चर्चा उनकी पत्नी सुलोचना के मुख से महापुराण में प्रस्तुत की गई है। सुलोचना
को एक कबूतरी के देखने से अपने पूर्वभवों का जातिस्मरण हो गया था, जो इसप्रकार है - ___ एक दिन जयकुमार और उनकी पत्नी सुलोचना अपने कुटुम्बी जनों के साथ महल की छत पर बैठे थे। उन्होंने छत पर एक कबूतर और कबूतरी - पक्षी युगल को देखा। जिसे देखते ही जयकुमार के मुख से अनायास ही निकला “हा! प्रभावती तू कहाँ ? साथ ही सुलोचना के मुख से निकला - "मेरा रतिवर कहाँ है ?" ऐसे शब्द निकलने के साथ ही दोनों मूर्च्छित हो गये। कुछ देर बाद जब मूर्छा टूटी तो सुलोचना ने जयकुमार के आग्रह करने पर परिवार के सामने अपने जातिस्मरण ज्ञान के आधार पर बताया कि - “जयकुमार और मेरा अनेक भवों का स्नेह है और इस स्नेह के कारण हम दोनों लगभग साथ-साथ जन्मतेमरते रहे हैं। हमारे दृष्टिपथ में आये इन कबूतर और कबूतरी के युगल को देखकर हमें हमारे पूर्व भवों का स्मरण हो गया है और इसीकारण हम मूर्च्छित हो गये थे।
इस भव के चार भव पूर्व हम दोनों में यह जयकुमार सुकान्त और मैं रतिवेगा के रूप में थे। उस भव में मेरे माता-पिता ने मेरा विवाह संबंध भवदत्त नामक सेठ पुत्र से करना तय कर दिया था, परन्तु भवदत्त | धनार्जन हेतु परदेश चला गया और वह कह गया कि 'यदि मैं बारह वर्ष में न लौट सकूँ तो रतिवेगा अर्थात् | १७
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