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उनका साथ नहीं छोड़ते । ५. इसी संदर्भ में राजा के सामंजसत्व नामक गुण को समझाते हुए कहा है कि - जो निर्दयी, हिंसक, पापाचारी और दुष्ट पुरुषों का निग्रह और क्षमाशील, संतोषी और सदाचारी शिष्ट ला पुरुषों का पालन करता है, वही उसका सामंजसत्व गुण है। जो राजा निग्रह करनेयोग्य अपराधी मित्र अथव पुत्र को भी शत्रु के समान दण्ड देता है। सबका समानरूप से निग्रह करता है, वह भी राजा का सामंजसत्व गुण है। सामंजसत्व का अर्थ है पक्षपातरहित होना ।
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इसप्रकार भरतेश्वर के द्वारा क्षात्रधर्म को सुनकर एवं स्वीकार कर सब राजा कृतार्थ हो गये । राज्यशासन और सत्ता में मानसिक खेद की ही बहुलता है - ऐसा हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। अतः ऐसे राज्यशासन | में निराकुल सुखपूर्वक कैसे रहा जा सकता है ? जिसका अन्त अच्छा नहीं और जिसमें निरन्तर पाप में प्रवृत्ति रहती है, ऐसे इस राज्य सुख में सचमुच निराकुल सुख का तो लेश भी नहीं है। चौबीसों घण्टे शंकित ही जी | बने रहने के कारण बड़ा भारी मानसिक दुःख बना ही रहता है। इसलिए आत्मार्थी को कम से कम जीवन द्वा | के अन्त समय में तो इस राज्यशासन का त्याग करना ही श्रेयस्कर है और तपग्रहण करना ही कल्याणकारी | है । यदि अभी त्याग करने में समर्थ न हों तो उसे हेय मानते हुए अन्त समय में तो राज्य के आडम्बर का अवश्य ही त्याग कर देना चाहिए। जब भी रोगादिक के निमित्त से अपना मरण काल निकट जाने तो तुरन्त जा | सल्लेखना धारण करने में तत्पर होना चाहिए । जब भी रोगादिक के निमित्त से अपना मरण काल निकट को जाने तो तुरन्त सल्लेखना धारण करने में तत्पर रहना चाहिए। पर में ममत्व का त्याग ही परमधर्म है, परमतप है। तप से परलोक में ऐश्वर्य प्राप्त होता है - ऐसा मान कर परीषह जीतने के लिए अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन | करना चाहिए। मन की चंचलता नष्ट करने के लिए पंच परमेष्ठियों का स्मरण करते हुए आयु के अन्त में सल्लेखना धारण करना चाहिए। आत्मा के स्वरूप को जाननेवाला जो क्षत्रिय अपने आत्मा की रक्षा नहीं करता, उसकी विष शस्त्र आदि के अपमृत्यु होती है।
अतः क्षत्रिय को आत्मरक्षा के साथ प्रजा का पालन करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
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