________________
Pls to 4EE EF
F
चक्रवर्ती भरत द्वारा ब्राह्मण वर्ण की स्थापना एवं प्रजा को धर्मोपदेश भरत चक्रवर्ती जब अनेक राजाओं के साथ भरतक्षेत्र को जीतकर साठ हजार वर्ष में दिग्विजय से वापस लौटे तब उन्हें विचार आया कि "मेरी इस विजय में उपलब्ध सम्पदा का दूसरों के हित में किसप्रकार उपयोग हो सकता है?"
वे सोचते हैं कि “मैं भी जिनेन्द्रदेव का बड़े ऐश्वर्य के साथ महामह नाम का यज्ञ (पूजा) कर सत्पात्रों में धन वितरण करता हुआ समस्त संसार को संतुष्ट करूँ । सदा नि:स्पृह रहनेवाले मुनि तो हमसे धन लेते | ही नहीं हैं, परन्तु ऐसा गृहस्थ भी कौन है जो धन-धान्य आदि सम्पत्ति के द्वारा आदर-सत्कार करने योग्य || हैं। जो मूलगुणों एवं अणुव्रतों को धारण करनेवाले हैं, सामान्य श्रावकों में धीर-वीर हैं और गृहस्थों में मुख्य हैं, ऐसे श्रेष्ठ आचरण करनेवाले सत्पात्र ही हमारे द्वारा धन और वाहन द्वारा सत्कार करने योग्य हैं।"
इसप्रकार निश्चय करके सत्कार योग्य सत्पात्र व्यक्तियों की परीक्षा करने हेतु राजराजेश्वर भरतजी ने समस्त प्रजा एवं राजाओं को बुलाया। साथ ही सब प्रजा को यह सूचित कर दिया कि आप लोग अपनेअपने सदाचारी इष्टमित्रों एवं नौकर-चाकर आदि के साथ हमारे पूजा-महोत्सव में अमुक-अमुक समय में पधारें।
इधर चक्रवर्ती ने उन सबकी परीक्षा करने के लिए अपने घर के आंगन में हरे-हरे अंकुर, पुष्प और फल आदि सचित्त पदार्थ खूब बिछवा दिये, उन लोगों में जो अव्रती थे वे तो बिना किसी सोच-विचार के राजमहल में चले गये। भरतजी ने उन्हें एक ओर बिठा दिया तथा जो अंकुरों पर चलकर नहीं आये, उन्हें ||१६
0
48