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१९४ || होनहार न होने के कारण लगातार अन्तर्मुहूर्त तक चित्त आत्मा में स्थिर नहीं हो सका, इसकारण केवलज्ञान
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वे वज्रवृषभनाराचसंहनन के धनी थे । अत: भूख-प्यास गर्मी सर्दी और उपसर्ग - परीषह - सब उनके शारीरिक बल के सामने नगण्य थे, इसकारण वे एक वर्ष तक अचल जमे रहे, कषायवश उन्होंने अन्न-जल का त्याग किया हो यह संभव ही नहीं । अतः शल्य की बात कहकर तो उनकी महानता आत्मसाधना की महिमा को कम करना है, जो उचित नहीं है। मुक्तिसाधना का तो यही राजमार्ग है।
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आज गाँव-गाँव में बाहुबली की भव्य प्रतिमायें विराजमान हैं, परन्तु उनके पीछे मात्र दक्षिण भारत में श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) की अतिशयकारी प्रतिमा का अनुकरणमात्र ही दृष्टिगोचर होता है। जबकि हमें | उनके वास्तविक वैराग्यवर्द्धक व्यक्तित्व का अनुकरण करना चाहिए। मूर्ति के माध्यम से मूर्तिमान परमात्मा का स्मरण करके उन जैसा आदर्श स्वयं के जीवन में ढालने की दिशा में अग्रसर होना चाहिए ।
देखो, राजा बाहुबली जब युद्ध में जमें तो जमें ही रहे और विजयश्री प्राप्त कर भी पीछे हटे तो हटे ही | रहे फिर राजसत्ता की ओर मुड़कर देखा भी नहीं । जब अपने आत्मा में जमे तो वहाँ भी जमे ही रहे । भले एक वर्ष लग गया, शरीर पर बेलें चढ़ गईं, सांप-बिच्छुओं ने पैरों के आसपास बिल बना लिये तो भी हिले-डुले नहीं, विचलित नहीं हुए । आज उनकी मूर्तियाँ भी हमें यही संदेश देती हैं।
वे दिगम्बर मुनि होकर जब अन्तर्मुख हुए तो फिर बाहर आये ही नहीं कदाचित् आत्मा में से उपयोग | हटा भी तो फिर उसी में लगाने के अनन्त पुरुषार्थ में लग गये। दीक्षा के बाद भोजन के लिए जाना तो बहुत दूर, भोजन करने का विकल्प भी उन्हें नहीं आया। एक वर्ष की साधना में वे स्वरूप में ऐसे स्थिर हुए कि स्थिर ही रहे ।
यह राज्य, भोगोपभोग के सुख साधन सभी प्राणियों को छोड़ देते हैं; यह मूर्ख प्राणी अपने हित के | लिए भी उन्हें नहीं छोड़ पाता । अहा ! विषयों में आसक्त हुए पुरुष इन विषयजनित सुखों की क्षणभंगुरता एवं
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