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| पालन कर रहा है, पर निश्चय धर्म का आलम्बन उसे नहीं हो पा रहा है। इसकारण एक वर्ष से कषायाग्नि | में जल रहा है। आज तुम जाकर जब वंदना करोगे तब उसके अन्दर का शल्य दूर होते ही उसको ध्यान
की सिद्धि होगी और आज ही उसके घातियाकर्म नष्ट होकर कैवल्य की प्राप्ति हो जायेगी। इसलिए अब तुम जाओ।"
यह जानकर भरतजी उस गजविपिन तपोवन की ओर रवाना हो गये।
वह जंगल भारी भयंकर है, आग के समान संतप्त धूप है, वहाँ बाहुबली आँखें बन्द कर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं। चारों ओर सांपों ने बांबियाँ बना ली हैं। शरीर पर बेलें चढ़ गई हैं। आसपास सांप-बिच्छू चल फिर रहे हैं। यह देख भरतजी को आश्चर्य हुआ। सज्जनोत्तम भरतजी ने उन्हें दूर से ही नमोस्तु...नमोस्तु......कहते हुए निकट जाकर उनके चरणों में मस्तक रख दिया और कहा - "हे मुनिपुंगव! आपके मन में क्या है ? यह मैं भगवान ऋषभदेव के समोसरण से जानकर आया हूँ। अरे प्रभु ! जिस पृथ्वी को आप मेरी समझ रहे हैं, उसे मेरे से पूर्व कितने ही चक्रवर्ती राजा भोग चुके हैं और भविष्य में भी दूसरे चक्रवर्ती भोगेंगे। ऐसी वैश्या सदृश इस भू नारी को आप मेरी समझ रहे हैं ? मैं तो अपने वर्तमान पुरुषार्थ की कमजोरी के कारण मजबूरी से इस राज्य में जल से भिन्न कमल की भांति रह रहा हूँ। हे योगीराज! जिस समय मैं षट्खण्ड जीत कर विजयार्द्ध पर्वत की वृषभादि शिला पर अपना नाम लिखने गया तो मैंने देखा कि वह नामों से भरी है, वहाँ मेरा नाम लिखने की भी जगह ही नहीं थी। इसकारण एक नाम मिटाकर मुझे अपना नाम लिखना पड़ा। ऐसी स्थिति में भी आप इस छहखण्ड के वैभव को मेरा समझते हो। हे मुनिपुंगव ! आप जानते हैं कि जब यह शरीर ही अपना नहीं तो यह भूमि मेरी कैसे हो सकती है ? अत: आपके अन्दर जो शल्य है, उसे तत्काल इसीसमय त्याग दीजिए।" यह सुनते ही बाहुबली की शल्य निकल गई और उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई।"
उपर्युक्त विचार कविवर रत्नाकर के हैं। यद्यपि कवि रत्नाकर के अनेक क्रान्तिकारी विचारों से मैं पूर्ण | ॥ सहमत हूँ; पर बाहुबली के हृदय में उक्त शल्य थी - इस बात से मैं उनसे सहमत नहीं हो पा रहा हूँ। ॥१५
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