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| पंचेन्द्रिय विषय के बीच में रहते हुए भी आत्मा को निर्मल बना रहे हो, इसलिए तुम उन ऋषियों से भी श्रेष्ठ | | हो। चावल के भूसे को अलग करके सफेद चावल को जिसप्रकार पकाया जाता है, उसीप्रकार शरीर के वस्त्र को छोड़कर आत्मध्यान अन्यजन करते हैं; परंतु तुम तो शरीर का वस्त्रादि से श्रृंगार करके भी आत्मा का ध्यान कर लेते हो।
दूसरों ने बाहा पदार्थों को छोड़कर आत्मध्यान करके आत्मसुख को प्राप्त किया और एक तुम हो कि | बाह्य पदार्थों के बीच में रहते हुए भी आत्मसुख का अनुभव कर रहे हो, इसलिए तुम धन्य हो।"
तब भरतजी ने विनयपूर्वक कहा कि "हे स्वामिन्! यदि आपके प्रसाद से मेरे लिए कैवल्य की सिद्धि हो तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है। यह सब तो आपकी ही महिमा है। हे कृपानिधान! आप तो कृपया यह बतलावें कि बाहुबली योगी के अंतरंग में क्या कमी है, जिससे केवलज्ञान नहीं हो पा रहा है ?" ।
उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में भरतेशवैभव के लेखक कविरत्नाकर ने तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से यह कहलवाया कि “बाहुबली के हृदय में यह शल्य है कि 'मैं भरत की भूमि में खड़ा हूँ।' जब बाहुबली तुमसे अलग होकर इधर आया तब उसने तुम्हारे दो मित्रों को यह कहते सुना कि - 'बाहुबली तुम भरत से नाराज होकर कहीं भी चले जाओ, पर महाराजा भरत के राज्य के अन्न-पान को छोड़कर और कहाँ तपश्चर्या करोगे?' इस कारण से उसके मन में क्षोभ भी उत्पन्न हुआ है। यहाँ आकर उसने दीक्षा तो ले ली, परन्तु वह तप के भार को ढो रहा है। आत्मनिरीक्षण के लिए जंगल में चला गया; परन्तु वहाँ उसके मन में यह शल्य बैठी है कि यह क्षेत्र भी भरत चक्रवर्ती का ही है। इसलिए उसने निश्चय किया कि वह अन्न-पान भी यहाँ का ग्रहण नहीं करेगा। समस्त कर्मों को जलाकर सीधा मोक्ष को जायेगा।"
इतना ही नहीं, कवि रत्नाकर ने भगवान ऋषभदेव के द्वारा बाहुबली की आलोचना में यह भी कहलवाया कि - "भूखा रहकर शरीर सुखाने और पर्वत के समान खड़ा होने से क्या होता है ? उसके मन में शल्य होने से आत्मनिरीक्षण नहीं हो रहा है । हे भरत! उसे व्यवहार धर्म तो सिद्ध है, व्यवहारधर्म का तो वह निर्दोष || १५
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