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“हे पुत्र!
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वे अपने अधीनस्थ राजाओं को और पुत्रों का सन्मार्ग दर्शन करते हुए वे आगे कहते हैं कि प्रजा का पालन न्याय से करना । न्याय नीति के व्यवहार से प्रजा प्रसन्न रहकर कामधेनु के समान मनोवांछित फल प्रदान करती है। प्रजा से न्यायपूर्वक उचित 'कर' (टैक्स) द्वारा धनार्जन करना, ताकि किसी का शोषण न हो । राजा प्रजा का शोषक नहीं पोषक होता है। राजा को अपने कुल की मर्यादा पालन करने के लिए बहुत प्रयास करना चाहिए, जिसे अपनी कुल की मर्यादा का ध्यान नहीं है वह अपने दुराचारों से कुल को कलंकित कर सकता है। इसके सिवाय राजा को अपनी रक्षा करने में भी सदा सावधान रहना चाहिए; क्योंकि अपने सुरक्षित रहने पर ही अन्य सबकुछ सुरक्षित रह सकता है। जिसने अपने आपकी रक्षा नहीं की, वह अपने ही क्रोधी, लोभी और अपमानित सेवकों से विनष्ट किया जा सकता है । अत: राजा को पक्षपात रहित होकर अजातशत्रु बनने का भी प्रयास करना चाहिए। जो पक्षपाती होता है, वह निश्चित ही अपने अन्दर क्र ही चारों ओर शत्रु पैदा कर लेता है और अपनों से ही अपमानित होने लगता है ।
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जो राजा काम, क्रोध, मोह, मद और मात्सर्य - इन छह अन्तरंग शत्रुओं को जीत लेता है, वह इस त लोक तथा परलोक दोनों ही लोकों में समृद्ध होता है; इसलिए हे पुत्र ! तुम अपने उपर्युक्त क्षात्र धर्म का | पालन करते हुए राज्य में स्थिर रहकर अपना यश, धर्म और विजय प्राप्त करो। "
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भरतजी १२ चक्रवर्तियों में प्रथम चक्री और सोलहवें मनु भी थे । भरतजी की माँ से प्रसूत ९९ सहोदर और थे। चक्रवर्ती के वैभव की तो बात ही क्या करें ? उनके ऐरावत हाथी के समान एक दो नहीं चौरासी जी लाख हाथी थे, इतने ही रत्नजड़ित रथ थे, अठारह कोटि घोड़े थे, चौरासी कोटि पैदल सेना थी । भरतजी का शरीर वज्र के समान सुदृढ़ वज्रवृषभनाराच संहनन संयुक्त था। छह खण्ड के सभी राजाओं का बल मिला कर जितना बल होता है, उससे भी अधिक बल अकेले भरतजी के था । बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनके भ अधीन थे। इतने ही देश थे। बत्तीस हजार देवियों तुल्य नारियाँ, इतनी ही म्लेच्छ स्त्रियाँ राजाओं द्वारा प्रदान | की गई थीं। इनके अतिरिक्त एक से बड़कर एक ३२ हजार रानियाँ और थीं। इसतरह कुल ९६ हजार रानियाँ | थीं। बहत्तर हजार नगर थे । ९९ हजार बन्दरगाह ४८ हजार पत्तन (ग्राम), सोलह हजार खेत (कस्बे) १४ हजार
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