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चक्रवर्ती भरत का राज्याभिषेक एवं वैभव जब भरतजी दिग्विजय पूर्ण कर अपने नगर में प्रवेश करने लगते हैं, तब उनके चक्राभिषेक होता है। चक्रवर्ती चक्ररत्न को आगे करके राजभवन में वैभव सहित प्रवेश करते हैं, उन पर चमर ढुलाये जाते हैं। उस समय वे निधियों और रत्नों की यथायोग्य पूजा कर चक्ररत्न प्राप्त होने का महामहोत्सव करते हैं। मनचाहा दान देते हैं और आगंतुक राजा-महाराजाओं का उचित सम्मान करते हैं। तत्पश्चात् उन आगन्तुक मेहमानों द्वारा चक्रवर्ती का औपचारिक राज्याभिषेक होता है।
राज्याभिषेक महामहोत्सव के बाद चक्रवर्ती भरत उपस्थित समस्त राजा और प्रजा को सन्देश देते हैं, राजनीति की शिक्षा देते हैं, कहते हैं कि - "तुम लोग न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करो। यदि अन्याय में प्रवृत्ति रखोगे तो अवश्य ही तुम्हारी राजवृत्ति का लोप हो जायेगा । देखो, न्याय दो प्रकार का है - पहला - दुष्टों का निग्रह करना और दूसरा - शिष्ट पुरुषों का संरक्षण करना, उनके भरण-पोषण की उचित व्यवस्था करना। यह क्षत्रियों का सनातन धर्म है। राजाओं को इन बातों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।
ये दिव्य अस्त्रों के अधिष्ठाता देवगण भी यथायोग्य आदरणीय हैं; क्योंकि ये भी विजयश्री में सहायक होते हैं। इस राजवृत्ति का अच्छीतरह से पालन करते हुए आप लोग आलस्य छोड़कर प्रजा के साथ न्यायमार्ग से कोमल बर्ताव करो। जो राजा इस धर्म का पालन करता है, वह धर्म विजयी होता है; क्योंकि जिसने अपनी दुष्प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर ली है - ऐसा क्षत्रिय ही पृथ्वी को जीत सकता है। इसप्रकार के बर्ताव से लोक में यश की प्राप्ति होती है और वह अनुक्रम से तीनों लोकों का स्वामी हो जाता है।" |
इसप्रकार प्रजा का पालन और अधीनस्थ राजाओं का मार्गदर्शन करते हुए भेदविज्ञान के बल से चक्रवर्ती || भरतजी राज्यसत्ता के बीच परघर में रहकर भी परघर में कम और निजघर में-आत्मा में अधिक रहते थे। ॥ १५
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