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९८८ || पहाड़ी नगर (संवाह) थे । एक लाख कोटि हल, तीन कोटि गौ शालायें, २८ हजार सघन वन थे । १८ हजार म्लेच्छ राजा थे, ९ निधियाँ थीं- ये निधियाँ चक्रवर्ती को सभी प्रकार की पंचेन्द्रिय भोगोपभोग संबंधी सामग्री उपलब्ध कराती थीं । चेतन एवं अचेतन १४ रत्न थे ।
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महाराज भरत के सुभद्रा नाम की स्त्री रत्न पट्टरानी थी, जो रति के समान सर्वांग सुन्दर थी और चक्रवर्ती को निर्बाध भोग के लिए सदैव उपलब्ध रहती थी । यहाँ ज्ञातव्य है कि चक्रवर्ती के इस जाति का विशेष पुण्योदय होता है कि उनके भोग में कभी बाधा नहीं पड़ती। भले वे उसका उपभोग करें या न करें। १. स्त्री रत्न सहित नौ निधियाँ, २. रानियाँ, ३. नगर, ४. शय्या, ५. आसन, ६. सेना, ७. नाटयशाला, ८. भोजन, ९. सवारी आदि उनकी क्रीड़ा के साधन थे । उक्त भोगों का उपभोग करते हुए भरत ने चिरकाल च तक एकछत्र राज्य किया ।
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चक्रवर्ती भरत के १६ हजार गणवद्ध देव थे, जो तलवार धारण कर नव निधियों की, चक्ररत्न की और भरत की सुरक्षा करने में सदा तत्पर रहते थे । सब ऋतुओं के अनुकूल सुखद वैजयन्त नामक महल का, बहुमूल्य मणियों जड़ित सभास्थल था, सब दिशाओं का सौन्दर्य देखने हेतु गिरिकूट महल था । कुबेर का भाण्डार गृह था। एक-एक का वर्णन कहाँ तक करें, उन्हें सभी प्रकार की सुख-सामग्री सदैव उपलब्ध थी । भरतजी की रसोईशाला में प्रतिदिन नये-नये नाना षट्स व्यंजन बनानेवाले ३६५ दिन के लिए रसोइयों के ३६५ समूह थे । प्रत्येक समूह एक दिन के भोजन बनाने की तैयारी पूरे वर्ष (३६५ दिन) तक करता था। भोजन नित्य नये स्वादों में इतना गरिष्ठ बनता था कि साधारण व्यक्ति एक ग्रास भी नहीं पचा सकता था । इसप्रकार चक्रवर्ती भरत का समय पूर्व पुण्यकर्म के उदय से सब तरह के आनन्द देनेवाले भोगों में लाखों-पूर्वों की आयु क्षणभर के समान व्यतीत हो रही थी ।
भरतजी ने अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हुए अपने लघु भ्राता वैरागी बाहुबली के पुत्र राजा | महाबली और रत्नबल राजकुमार का योग्य वय में बहुत वैभव और उत्साह के साथ विवाह करके उनके पितृ वियोग के दुःख को भुला दिया था । भरतजी अपने गृहस्थ धर्म का निर्वाह करते हुए अपने जमाई राजकुमारों
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