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| ने भी उससमय तो अपने आपको गौरवान्वित अनुभव किया; परंतु जब उन्होंने गंभीरता से विचार किया || तो वे सोचने लगे - “सचमुच भरत भैया क्रोध के पात्र नहीं हैं, वे तो दया के पात्र हैं, वस्तुत: वे जलयुद्ध, | नेत्रयुद्ध और मल्लयुद्ध हारने से पहले मंत्रियों के प्रस्ताव को स्वीकार करके ही हार गये थे। उन्हें मंत्रियों की | बातों में आना ही नहीं था, उनका प्रस्ताव स्वीकार करना ही नहीं था।" | इसप्रकार यह राज्यादि सब विनश्वर हैं, फिर भी चारित्र मोह के तीव्र उदय से एवं चक्रवर्तित्व के नियोग से भरतजी ने इन भोगों के लिए क्रोधावेश में बाहुबली पर चक्ररत्न चला दिया। यह एक दुःखद घटना है। बड़े भाई की मजबूरी पर खेद व्यक्त करते हुए आचार्यदेव उन भोगों का तिरस्कार करते हैं, जिसके कारण भरत ने भाई पर चक्र चला दिया। ___ क्रोधावेश में आकर भरतजी द्वारा चलाये गये चक्र की बाहुबली पर भी क्षणिक प्रतिक्रिया हुई । यद्यपि वे भी तद्भव मोक्षगामी समकिती थे, परन्तु उन्हें भी भरतजी के चक्र चलाने जैसे क्रोधावेश पर क्रोध आ गया। परन्तु तत्त्वज्ञान के बल ने उन्हें तत्काल शांत कर दिया। अत: वे संसार से विरक्त होते हुए एवं उन्होंने अपने अग्रज के सम्मान को ध्यान में रखते हुए क्षमायाचना की।
बाहुबली ने कहा - "भाई! आपने यह जानते हुए भी कि 'मेरा शरीर वज्रवत है, अकाल मरण से मुक्त है और परिवार पर इस चक्र का कोई अन्यथा प्रभाव नहीं हो सकता। फिर भी यह निष्फल दुस्साहस कैसे किया? क्या आप क्रोध के आवेश में अपनी और मेरी हैसियत ही भूल गये। अस्तु आपको राज्यसत्ता बहुत प्रिय है, सम्भालो अपना सम्पूर्ण राज्य! जिस राज्यसत्ता के पीछे भाई-भाई का रिश्ता भूल जाये, धिक्कार है उस राज्यसत्ता को।"
बाहुबली मन ही मन पश्चाताप के स्वर में सोचते हैं कि “सचमुच यह अच्छा नहीं हुआ। मैं भी तो इसी राज्यसत्ता के लोभ में आ गया, मिथ्या अभिमान में आ गया; जो भाई की मुँहजोरी की। मैंने भी तो सामना करने का दुस्साहस किया, जो मुझे नहीं करना चाहिए था। चक्रवर्ती के नाते भरत की तो छहखण्ड ||१४
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