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पर विजय पाने की बाध्यता थी; पर मैंने यह भूल क्यों की? मैंने उनकी मजबूरी को क्यों नहीं समझा? मैंने | उन्हें यह मौका ही क्यों दिया ? सबसे पहले तो मैंने यही भूल की, जो मंत्रियों के कहने से तीन युद्ध किये | और उन्हें तीनों बार नीचा दिखाया, उन्हें अपमानित कर उत्तेजित किया; जिससे वे क्षणभर के लिए उत्तेजित
हो गये और चक्र चला दिया। ऐसी स्थिति में यदि उनके स्थान पर मैं होता तो मैं भी तो यही करता । समय || पर मुझे सद्बुद्धि आ गई और मैंने उनका सम्मान रखते हुए उन्हें नीचे नहीं गिराया, अन्यथा और भी अधिक | दुःखद बात होती। | मुझे अपने इस अपराध का प्रायश्चित्त लेना होगा और पोदनपुर का राज्य भी चक्रवर्ती होने के नाते | उन्हीं का है, अत: उन्हें सौंपकर अब मैं जैनेश्वरी दीक्षा धारण करूँगा। भाई भरत भी साधारण पुरुष नहीं हैं। वे भी चक्रवर्ती की सम्पूर्ण सत्ता का लोभ त्याग कर आत्मसाधना कर इसी भव से मोक्ष प्राप्त करेंगे।"
कवि रत्नाकर के भरतेश वैभव के अनुसार भरतजी अपने लघुभ्राता बाहुबली से भ्रातृ स्नेहवश जानबूझकर स्वयं हारे थे। वे बाहुबली द्वारा हराये नहीं गये थे। वे जानते थे कि बाहुबली स्वाभिमानी हैं, वह सहजभाव से आधीनता स्वीकार नहीं करेगा और उसका अन्य भाइयों की भाँति दीक्षित हो जाना भी अभी ठीक नहीं है। अत: उसे जिता देने में ही मेरी जीत है। आखिर छोटा भाई ही तो है। उसका स्वाभिमान तो सुरक्षित रहना ही चाहिए।
यद्यपि कवि रत्नाकर का यह मौलिक चिन्तन परम्परा से कुछ हटकर है; आचार्य जिनसेन ने ऐसा नहीं लिखा, उनके अनुसार तो भरतजी ने बाहुबली को प्रतिद्वन्दी ही माना, जिसका उल्लेख आगे है; परन्तु आगम भी कवि रत्नाकर का समर्थन करता है। आगम में स्पष्ट लिखा है कि चक्रवर्ती का शारीरिक बल कामदेव से बहुत अधिक होता है। इसकारण चक्रवर्ती कामदेव से हार भी नहीं सकते।
भरतजी ने छोटे भाई के स्वाभिमान की सुरक्षा एवं मनोबल बनाये रखने के लिए जान-बूझकर स्वयं को हारा हुआ प्रदर्शित किया। उन्होंने सोचा “यदि वह हार गया तो यह भी अन्य भाइयों की तरह दीक्षित || १४
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