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भरतजी नहीं चाहते थे कि बाहुबली युद्ध में पराजित हो; क्योंकि इसी युद्ध के निमित्त से विरक्त होकर ॥ ९७ भाई दीक्षित हो वनवासी बन गये थे। अतः उन्होंने सोचा - “सैनिक युद्ध के बजाय शारीरिक युद्धों में मैं बुद्धिपूर्वक स्वयं को पराजित दिखाकर ही उसके स्वाभिमान की रक्षा कर सकता हूँ। इससे उसका स्वाभिमान भी सुरक्षित बना रहेगा और मनोबल भी बढ़ा रहेगा। यदि उसने किसी भी तरह स्वयं को पराजित | अनुभव किया तो अन्य भाइयों की भाँति ही वह भी दीक्षित हो जायेगा। बाहुबली का दीक्षित हो जाना
भरतजी को अभीष्ट नहीं था। इसकारण उन्होंने तीनों शारीरिक युद्धों में स्वयं को जानबूझकर पराजित घोषित किया था। अन्यथा भरत को पराजित करने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं थी।
प्रश्न - यदि भरतजी ने स्नेहवश ही बाहुबली को जिताया तो फिर उन पर चक्र क्यों चलाया ?
उत्तर - भरतजी के पराजित घोषित होने पर भी, जब चक्ररत्न उन्हीं के पास खड़ा रहा तो भरतजी ने आदेश देते हुए कहा - जा! जा !! अब तेरा स्वामी बाहुबली है, फिर भी चक्र नहीं चला तो उन्होंने धकेलते हुए कहा - चला क्यों नहीं जाता। आदेश पाकर चक्र चला तो गया; किन्तु फिर प्रदक्षिणा देकर वापस आ गया; क्योंकि चक्री भरत थे बाहुबली नहीं।
तात्पर्य यह है कि भरतजी ने चक्र क्रोधावेश में नहीं चलाया था; क्योंकि उन्हें यह ज्ञात था कि चक्र परिवार का घात नहीं करता।
ज्ञातव्य है कि भरत ने यह रहस्य स्वयं तक सीमित रखा, इसी कारण जगत ने तो यही जाना कि - भरत ही पराजित हुए हैं और बाहुबली जीते हैं। इस कारण लोक में तो भरतजी का अपमान होना स्वाभाविक ही था सो हो गया। हुंडावसर्पणीकाल का दोष भरत की हार नहीं, बल्कि हार होने की अफवाहमात्र थी।
यद्यपि इस सम्बन्ध में मेरा विचार भी कवि रत्नाकर से मिलता-जुलता है, फिर भी मैंने दोनों पक्ष प्रस्तुत ||| कर पाठकों को अपना मत बनाने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया है।
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