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महाराज भरत विजयश्री को प्राप्त करते हुए मार्ग में जहाँ-तहाँ सेना के शिविरों में विश्राम करते जाते थे। वे शिविर अनेक जगह अधीनस्थ राजाओं के राज महलों में भी होते थे तथा कहीं-कहीं तम्बुओं में सेना शिविरों की सुन्दर व्यवस्था होती थी, जिनकी शोभा भी दर्शनीय थी।
जिसप्रकार श्रेष्ठ महिमा को धारण करनेवाले समवसरण में विराजमान जिनेन्द्रदेव की देव आराधना करते हैं, उसीप्रकार श्रेष्ठ वैभव को धारण करनेवाले उन शिविरों के मण्डपों में बैठे हुए महाराज भरत को पूर्वदिशा के राजाओं ने अपनी कुल परम्परा के अनुसार धन भेंट में देकर तथा आभूषण आदि अन्य सुख-सामग्री के साथ सुकन्यायें प्रदान कर उनकी सेवा की। इसीप्रकार उनकी सेना के द्वारा रोके हुए अन्य कितने ही राजाओं ने अहंकार छोड़कर दूर से ही मस्तक झुकाकर चक्रवर्ती के लिए प्रणाम किया एवं उनकी आधीनता स्वीकार की।
इसीप्रकार भरतजी ने ६० हजार वर्षों तक सभी दिशाओं के राजाओं को जीतते हुए उन्हें अपने आधीन किया और पुन: उन्हें ही उनकी राज्यसत्ता प्रदान कर दी एवं उनसे प्राप्त सम्मान को स्वीकार कर जब चक्रवर्ती महाराज भरत कैलाश पर्वत पर जाकर पुन: आदि प्रभु की अर्चना की। भगवान ऋषभदेव के सिवाय किसी को भी नमन नहीं करने का निर्णय ले लिया था। महाराजा भरत के दूत द्वारा सन्देश सुनकर ९७ भाई तो संसार से विरक्त हो गये और उन्होंने विचार किया- सचमुच यह संसार असार है इसमें सच्चा सुख तो है नहीं, संसार में प्राणी जिसे सुख माने बैठे हैं, वह भी सचमुच तो सुखाभास ही है। उन्हें विचार आया कि - "यदि संसार में सुख होता तो तीर्थंकर भगवान इस सांसारिक सुख के साधनभूत राजवैभव का त्याग कर मोक्षमार्ग में अग्रसर क्यों होते? अतः हम भी इस क्षणिक सुख को तिलाञ्जलि देकर आज ही कैलाश पर्वत पर जाकर प्रभु के चरणों की शरण में जिनदीक्षा ग्रहण करेंगे" - ऐसा निश्चय कर ९७ भाई तो दीक्षित हो गये और उसी भव में केवलज्ञान प्रगट कर मुक्त भी हो गये।
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सर्ग १३