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भगवान ऋषभदेव के गर्भ एवं जन्मकल्याणक जब तीर्थंकर का जीव माता के गर्भ में आता है, तब उसके गर्भ में आने के ६ माह पूर्व से कुबेर द्वारा प्रतिदिन तीन बार साढ़े तीन करोड़ दिव्य रत्नों की वर्षा होती है। जिससे पूरे नगर में दरिद्रता का अभाव हो जाता है। निर्धन व्यक्ति दिव्य सुख-सामग्री को पाकर धन्य हो जाते हैं। ये रत्न तीर्थंकर के पिता के राजमहल के प्रांगण में बरसते हैं। अत: आशंका की तो कोई गुंजाइश नहीं है; फिर भी कोई ऐसा तर्क कर सकता है कि जो रत्न (पत्थर) ओलों की तरह आकाश से बरसते होंगे, उन दिव्य रत्नों की बाजार में क्या कीमत होती होगी ? वे बाजार में बिकते होंगे या नहीं?
उनसे हमारा कहना है कि यदि आपको यह बात नहीं जंचती है तो आप रत्नों की वर्षा को समृद्धि का प्रतीक तो मान ही सकते हैं। जैसे कि जब कृषि के अनुकूल समय पर पानी की वर्षा होती है तो लोग कहते हैं कि यह पानी नहीं सोना बरस रहा है; किन्तु वहाँ कोई सोने के कण या स्वर्ण आभूषण तो नहीं बरसते - ऐसे ही जब तीर्थंकर का जन्म होता है तो सारे देश में समृद्धि हो जाती है, कोई दरिद्र नहीं रहता। न अतिवृष्टि होती है, न अनावृष्टि और न अकाल या दुष्काल पड़ता है। बस, इसे ही रत्नों की वर्षा के प्रतीकरूप मान लो। अप्रयोजनभूत बातों में तर्क करने से प्रयोजनभूत तत्त्व में अश्रद्धा हो सकती है। अतः ऐसे तर्क करना उचित नहीं है।
जिनवाणी में ऐसे उल्लेख आये हैं कि उस रत्नवर्षा से भगवान के पिता द्वारा किमिच्छिक दान देने से दरिद्रों की दरिद्रता समाप्त हो गई थी। इसका अर्थ भी यही है कि वे रत्न केवल शोभामात्र नहीं होते; बल्कि बहुमूल्य होते हैं। उनसे दरिद्रों की दरिद्रता दूर होती है। तिलोयपण्णति, महापुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण, शान्तिनाथ पुराण, महावीर पुराण
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