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पद दिया। शेष ९९ पुत्रों को भी राज्य का भिन्न-भिन्न भाग देकर सम्राट ऋषभदेव दीक्षा हेतु पूर्ण निराकुल हो गये। संसार संबंधी कोई चिन्ता उन्हें नहीं रही।
माता-पिता आदि परिवार से विदाई लेकर इन्द्र द्वारा सजाई गई सुदर्शन नामक पालकी पर जब वैरागी सम्राट ऋषभदेव सवार हुए तब इन्द्र ने अति आदर पूर्वक बिठाया। उस समय वहाँ उपस्थित इन्द्रों, विद्याधरों भूमिगोचरी राजाओं में यह विवाद हुआ कि सर्वप्रथम पालकी कौन उठाये ? .
अन्ततोगत्वा यह निर्णय हुआ जो तीर्थंकर के साथ संयम धारण कर सकें, उन्हें ही पालकी उठाने का अधिकार है। एक मात्र मानवों में संयम धारण की पात्रता होती है, अत: यह अधिकार उन्हें प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। इन्द्रों को मानवों से ईर्ष्या हुई, उन्होंने ऊँचे स्वर में कहा - "हे प्रभो! हम मनुष्य पर्याय पर अपना इन्द्रपद न्यौछावर करने को तैयार हैं, हमारा इन्द्र पद लेकर बदले में हमें मनुष्य पर्याय दे दें।"
यहाँ अफसोस यह है कि हमें परम सौभाग्य से न केवल मनुष्यभव मिला, बल्कि उत्तमकुल भी मिला, श्रेष्ठ जाति, अच्छा क्षयोपशम, परिवार की अनुकूलता, सत्संगति आदि सब कुछ मिला; फिर भी हम चेतते नहीं हैं। क्षणिक पर्याय की अनुकूलता मे मुग्ध होकर हम अपना अमूल्य मनुष्य भव यों ही भोगों में गमा रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि हमें भी कभी पछताना पड़े और देवों की भांति मनुष्य भव प्राप्त करने की याचना करनी पड़े। __ हमें देवों और मानवों में हुए संघर्ष से यह सबक सीखना चाहिए कि हम अपना अमूल्य समय व्यर्थ न गमायें । संयम धारण कर तीर्थंकरों का अनुसरण करते हुए अपनी मानव पर्याय सार्थक करें।
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