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। यहाँ विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि - यद्यपि भरतचक्रवर्ती और देवों द्वारा मुनिराज की द्रव्यपूजा | में नानाप्रकार के फलों का स्पष्ट उल्लेख है; परन्तु वहाँ दिव्य और देवपुनीत निर्जन्तुक सामग्री की बात है।
जैसा कि आगम में आता है - "दिव्वेणगंधेण, दिव्वेणपुफ्फेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण धूवेण, दिव्वेण | वासेण, अच्चन्ति पूज्जन्ति....।" | अत: हमें वर्तमान परिस्थितियों में उनकी होड़ करना अभीष्ट नहीं है; फिर भी जहाँ जो पद्धति चलती
हो, उसे चलने देना चाहिए, क्योंकि यह कोई सैद्धान्तिक और तात्त्विक विषय ही नहीं है, ये हमारे साध्य | नहीं, बल्कि मात्र साधन हैं; अत: जिन माध्यमों से जिसके उपयोग की स्थिरता बढ़ती हो, मन:स्थिति जिनपूजा के अनुकूल रहती हो, वह उसे अपनाये । पर, कोई भी किसी तरह का दुराग्रह न पाले । जहाँ तक संभव हो अहिंसक सामग्री का उपयोग करें तो अति उत्तम है। एतदर्थ जिसतरह मुनिराज के आहार में सचित्त सामग्री को अचित करके उपयोग में लेते हैं - ऐसा ही कोई बीच का मार्ग पूजापद्धति में मिल जाये तो भी इस पन्थभेद की समस्या का समाधान होना सरल हो सकता है। अन्यथा इस विषय को गौण रखकर भी हमारी एकता, संगठन और परस्पर का सौहार्द बना रह सकता है। जो कि सामाजिक दृष्टि से तो अच्छा है ही, तत्त्वप्रचार-प्रसार की दृष्टि से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।
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