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| मेरे पिताजी भगवान ऋषभदेव तथा राजाओं में मेरे भ्राता भरतजी की बराबरी करनेवाले कौन हैं ? हम लोग | तो उन दोनों को स्मरण करते हुए जीते हैं।"
प्रणयचंद्र मंत्री ने आगे कहा - स्वामिन्! आपके सहोदर इस अवसर पर स्वयं आशीर्वाद लेने के लिए आनेवाले थे; परंतु वे अनिवार्य कारण से नहीं आ सके। कारण कि वे एक शास्त्र को सुनने में दत्तचित्त हैं। बहुत संभव है कि कल परसों तक वह ग्रंथ पूर्ण हो जायेगा। हे स्वामिन्! और एक गूढार्थ आपसे निवेदन करने का है। उसे भी आप सुनने की कृपा करें।
“गूढार्थ" शब्द को सुनते ही बुद्धिमान लोग वहाँ से उठकर चले गये। वहाँ एकांत हो गया। प्रजा, परिवार, सामन्त, मांडलिक, मित्र 'विद्वान' नृत्यकार आदि सबके सब क्षणमात्र में जब वहाँ से चले गये तब प्रणयचन्द्र बहुत धीरे-धीरे कुछ कहने लगा। बुद्धिसागर मंत्री पास में ही बैठा था।
"स्वामिन्! विशेष कोई बात नहीं, आपकी मातुश्री जगन्माता यशस्वती महादेवी को पोदनपुर ले जाने की इच्छा आपके सहोदर ने प्रदर्शित की है। बहुत देरी नहीं है, कल या परसों तक शास्त्र की समाप्ति हो जायेगी। उसके बाद वे स्वयं ही यहाँ पधार कर मातुश्री को पोदनपुर ले जायेंगे - ऐसा उन्होंने कहा है।
राजन्! जब तक आप दिग्विजय कर वापिस लौटेंगे तबतक के लिए माता यशस्वती देवी को अपने नगर में ले जाने का उन्होंने विचार किया है।"
प्रणयचन्द्र के इसप्रकार के वचन को सुनकर चक्रवर्ती ने कहा कि “पुत्र के घर में माता का जाना और माता को पुत्र द्वारा ले जाना कोई नई बात है क्या ? ऐसी अवस्था में इस संबंध में मुझसे पूछने की क्या जरूरत है ? मैं भी मातुश्री के लिए पुत्र हूँ। वह भी पुत्र है, इसलिए उसे भी माताजी को ले जाने का अधिकार है। मैं माता की आज्ञा का अनुवर्ती हूँ। पूज्य माताजी ही मुझे हमेशा सन्मार्ग का उपदेश देती रहती है। मैं || माताजी को कुछ भी कह नहीं सकता। भाई की इच्छा हो तो वह उन्हें ले जावे।"
सर्ग
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