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| इसे सुनकर प्रणयचन्द्र ने फिर कहा कि "स्वामिन् ! आपने जैसा विचार प्रकट किया उसीप्रकार आपके || सहोदर ने भी कहा था कि इसमें पूछने की क्या जरूरत है ? परन्तु उनसे मैंने कहा कि यद्यपि इस काम के लिए पूछने की जरूरत नहीं है; परन्तु उनसे मैंने निवेदन किया कि बिना सूचित किये माँ को लाना भी ठीक नहीं है। सूचना तो जरूर देनी ही चाहिए। इसलिए आपको सूचित करने के लिए मैं आया हूँ।
भरतेश प्रणयचन्द्र की बात सुनकर मन ही मन में कुछ हंसे व कहने लगे कि “प्रणयचन्द्र ! तुम बहुत बुद्धिमान हो । तुम्हारी कर्तव्य परायणता पर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। तुम बाहुबली के पास में रहो' - ऐसा कहकर उसको उत्तम वस्त्र आभूषण दिये । प्रणयचन्द्र भी भरतेश को प्रणाम कर वहाँ से वापिस चला गया।
प्रणयचंद्र के चले जाने के बाद भरतजी बाहुबली की वृत्ति पर मन ही मन हंसे। फिर प्रकटरूप से बुद्धिसागर से कहने लगे - “बुद्धिसागर! मेरे भाई के स्वाभिमान को तो तुमने देख ही लिया है न? मन में गांठ रखकर यहाँ आना नहीं चाहता है। इसलिए बहाना बनाकर प्रणयचन्द को भेजा है, बहाना भी शास्त्र सुनने का है? क्या यही अच्छा उपाय सोचा है ? 'मैं कामदेव हूँ' इस बात का उसे बहुत अभिमान है। वह यह समझता है कि उसकी बराबरी करनेवाले कोई नहीं हैं।"
भरतजी ने पुन: कहा - "प्रणयचन्द्र ने असली बात को छिपाकर रंग चढ़ाते हुए बातचीत की है। मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूँ कि बाहुबली मेरे प्रति भाई के नाते माथा नहीं झुकायेगा, परन्तु मैं क्या करूँ ? उसकी मर्जी, उसे जो जंचे वही करे।
बाहुबली युवराज है न! इसलिए भी उसे इतना अभिमान है। अन्य छोटे भाई भी कम नहीं। जिसप्रकार सूर्य को देखने पर नीलकमल अपने मुख को छिपा लेता है उसीप्रकार मेरे साथ उनका व्यवहार है। यद्यपि पूज्य पिताजी व माताजी के प्रति मेरे भाइयों को अत्यधिक भक्ति है; परन्तु मुझे देखकर नाक-मुँह सिकोड़ | सर्ग लेते हैं। क्या तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्रों का यह व्यवहार उचित है । मैं हमेशा इन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार ॥ १३