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कर वापिस लौटूं, तब आप यहाँ पधारें। अच्छा अब मैं दिग्विजय के लिए जा रहा हूँ। आप मेरा मार्गदर्शन || | करें जिससे मुझे दिग्विजय में सफलता मिले।"
भरतेश की बात सुनकर यशस्वती देवी कहने लगी कि “हे बेटा ! तुम्हें मेरे मार्गदर्शन की क्या जरूरत है? सारे जगत को तुम आदेश देते हो, वह तुम्हारे आदेश के अनुसार चलते हैं। जाओ दिग्विजय कर आनन्द से वापिस आओ। बेटा! जो पुत्र दुर्मार्गगामी होते हैं उसे माता के मार्गदर्शन की आवश्यकता है। नीर-क्षीर विवेकी हंस के समान जिस पुत्र का आचरण है माता उसे क्या शिक्षा दे? तुम ही बोलो । बेटा! मैं समझ गई कि मैंने तुमको जन्म दिया है, इसलिए तुमने मुझसे यह बात कही। यह तुम्हारी शालीनता है। बेटा! क्या कहूँ! तुम्हारी वृत्ति से तुम्हारे पिता भी संतुष्ट थे। मेरा चित्त भी अत्यधिक प्रसन्न है। इसलिए प्रिय भरत! तुम आनंद से पृथ्वी को वश कर आओ। तुममें अतुल सामर्थ्य मौजूद है।"
माता के मिष्टवचनों को सुनकर भरतेश बहुत ही प्रसन्न हुए। आनंद के वेग में ही पूछने लगे कि “क्या माता! आपको विश्वास है कि मुझमें उसप्रकार की बुद्धि व सामर्थ्य मौजूद है?"
यशस्वती ने तत्क्षण कहा कि “हाँ, हाँ विश्वास है। तुम जाओ!"
"तब तो कोई हर्ज नहीं" ऐसा कहकर भरतेश ने माता का चरण स्पर्श कर बहुत भक्ति से प्रणाम किया। उसीसमय माता ने पुत्र को मोती का तिलक किया। साथ में पुत्र को आलिंगन लेकर आशीर्वाद दिया कि "बेटा ! मन में कोई आकुलता नहीं रखना । तुम्हारे हाथी घोड़ों के पैर में भी कोई कांटा नहीं चुभे । षट्खंड में राज्य पालन करनेवाले राजागण तुम्हारे चरण में मस्तक रखेंगे। कोई संदेह की बात नहीं है। जाओ! जल्दी दिग्विजयी होकर आओ।" इसप्रकार बहुत प्रेम के साथ पुत्र की विदाई की।
माता की आज्ञा पाकर भरतेश वहाँ से चले। इतने में मातुश्री यशस्वती के दर्शन के लिए भरत की रानियाँ | सर्ग आईं। अनेक तरह के श्रृंगारों को धारण कर रानियों ने झुण्ड के झुण्ड में आकर अपने पति और सासू माता ||१३)
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