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यह अभ्यागत और कोई नहीं, भरतेश के लघुभ्राता युवराज बाहुबली के हितैषी मंत्री प्रणयचंद्र थे। जैसा || उनका नाम था वैसे ही उनमें गुण थे, वे अतिविवेकी थे, दूरदर्शी थे। | भरतेश कुछ समय इधर-उधर की बातचीत कर उनसे पूछने लगे कि “प्रणयचंद्र ! मेरा भाई बाहुबली कैसा है ? और किसप्रकार आनंद से समय व्यतीत करता है ? उसकी दिनचर्या क्या है ? एवं हमारे दिग्विजय प्रयाण के समाचार सुनने के बाद वह क्या बोला ?
भरतेश के प्रश्न को सुनते ही प्रणयचंद्र उठकर खड़े हुए और बहुत विनय के साथ हाथ जोड़कर कहने लगे कि राजन्! "आपके सहोदर कुशल हैं। उन्हें कोई चिंता नहीं और कोई बाधा भी नहीं। सदा वे सुख से ही अपना काल व्यतीत कर रहे हैं; क्योंकि वे भी तो भगवान ऋषभदेव के ही पुत्र हैं न?
स्वामिन् ! वे राज्यशासन को संभालने के साथ श्रावकधर्म का पालन करते हुए कभी काव्य का श्रवण करते हैं, कभी नाटक का अवलोकन करते हैं तथा कभी नृत्य का आनंद लेते हैं तो कभी संगीत के रस में मग्न होकर सुख से समय बिताते हैं। ___ कभी-कभी वे श्रृंगारवन में क्रीड़ा करने के लिए जाते हैं। कभी-कभी महल में अपनी प्रिय रानियों के साथ बैठकर सरस वार्तालाप करते हैं, कभी कोकिल, भ्रमर, तोता आदि के विनोद को देखकर आनंदित होते हैं। परंतु उसमें एकदम मन न होकर योग का भी यदा-कदा अभ्यास करते हैं। राजन्! वे भी तो आपके ही सहोदर हैं न ? यह उनकी दिनचर्या है। अस्तु आपके दिग्विजय प्रयाण की वार्ता उन्होंने सुनी है। उसे सुनकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई है।"
दिग्विजय के संबंध में बोलते हुए उन्होंने हमसे कहा है कि "बड़े भाई ने जो दिग्विजय का विचार किया | है वह स्तुत्य है। उनका सामना करनेवाले इस पृथ्वी में कौन है ?"
साथ में स्वाभिमान के साथ उन्होंने यह भी कहा कि - "इस पृथ्वी पर प्रात:स्मरणीय देवाधिदेवों में | १३
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