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केवलज्ञान कल्याणक के संदर्भ में तीन बातें जानना जरूरी हैं - १. ऋषभदेव की धर्मसभा (समोसरण) की रचना। २. भगवान ऋषभदेव की दिव्यध्वनि । ३. दिव्यध्वनि में आया वस्तुस्वरूप अर्थात् धर्म का सार ।
समवसरण की रचना सौधर्म इन्द्र करता है। वह धर्मसभा गोलाकार होती है। बीच में तीर्थंकर भगवान विराजते हैं। चारों ओर श्रोतागण बैठते हैं। चारों ओर कुल १२ कोठे होते हैं। जिनमें मुनिराज, आर्यिका एवं श्रावक, श्राविकाओं के साथ देव-देवांगनायें तथा पशु-पक्षी भी श्रोताओं के रूप में बैठते हैं। । यद्यपि भगवान बीच में बैठते हैं, पर सबको उनका मुख ही दिखाई देता, सबको ऐसा लगता है कि | भगवान मुझे ही समझा रहे हैं - यह समवसरण का अतिशय है। इसी कारण उन्हें चतुर्मख भी कहा जाता है। और भी अनेक अतिशय केवलज्ञान प्रगट होने पर होते हैं। जैसे कि -
योजन शत इक में सुभिख, गगन गमन मुख चार । नहिं अदया उपसर्ग नहिं, नाहीं कवलाहार ।। सब विद्या ईश्वरपनो, नाहिं बढ़े नख-केश ।
अनमिष दृग छायारहित, दश के वल के वेश ।। १. एक सौ योजन में सुभिक्षता, २. आकाश में गमन, ३. चारों ओर मुखों का दीखना, ४. अदया का अभाव, ५. उपसर्ग का न होना, ६. कवलाहार का नहीं होना, ७. समस्त विद्याओं का स्वामीपना, ८. नख-केशों का नहीं बढ़ना, ९. नेत्रों की पलकें न झपकना, १०. शरीर की छाया न पड़ना - ये दश अतिशय केवलज्ञान के समय प्रगट होते हैं। १४ अतिशय देवकृत भी होते हैं, जो इसप्रकार हैं -
देव रचित हैं चारदश, अर्द्धमागधीभाष । आपस माहीं मित्रता, निर्मल दिश आकाश । होत फूल-फल ऋतु सबै, पृथिवी कांच समान । चरण कमल तल कमल हैं, नभतें जय-जय बान ।।
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सर्ग
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