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योग-प्राणायाम और ध्यान का निमित्त-नैमित्तिक संबंध - तात्त्विक दृष्टि से तो भेदविज्ञान होने पर वस्तु | स्वातंत्र्य के सिद्धान्त के सहारे से प्रतिकूल परिस्थितियों में होनेवाली राग-द्वेष परिणति को कृश करने के रूप में तथा परिणामों को शान्त रखने के रूप में धर्मध्यान ज्ञानियों को समय-समय पर चलते-फिरते भी होता ही रहता है; परन्तु उसकी विशेष सिद्धि के लिए प्राणायाम की भी आचार्यों ने अनुमोदना की है। प्राणायाम की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि -
सुनिर्णीत सिद्धान्तः प्राणायाम प्रशस्यते ।
मुनिभिर्ध्यानं सिद्धयर्थं स्थैर्यार्थंचान्तरात्मनः॥१॥ जिन्होंने भलेप्रकार से सत्यार्थ सिद्धान्त का निर्णय किया है, ऐसे ज्ञानियों ने धर्मध्यान की सिद्धि के लिए तथा मन की एकाग्रता के लिए प्राणायाम की प्रशंसा की है।
प्राणायाम का स्वरूप - श्वांस अर्थात् बाहर की वायु का लेना और प्रश्वास अर्थात् अन्दर की वायु को निकालकर रोकना प्राणायाम है। ___ "मन-वचन-कायरूप योगों के निग्रह के लिए श्वासोच्छवास के नियंत्रण करने की प्रक्रिया ही प्राणायाम है।"२
प्राणायाम के ३ भेद हैं - १. कुंभक (बाह्यवृत्ति) २. पूरक (अभ्यन्तर वृत्ति), ३. रेचक (स्तंभवृत्ति)। १. कुंभक - श्वांस को धीरे-धीरे अन्दर खेंचकर पूरक पवन को नाभि के मध्य स्थिर करके रोकना।
२. पूरक - तालु के छिद्र से अर्थात् तालु व ओठों को कौए की चोंच की तरह बनाकर बाहर की पवन को खेंचना अथवा नाक से खेंचना और शरीर में पूरण करना पूरक है। १. ज्ञानार्णव सर्ग २९, श्लोक १ २. ज्ञानार्णव
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