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है। धर्मध्यान करने के लिए तो आत्मानुभूति होना अनिवार्य है। निश्चयतः धर्मध्यान आत्मा की अन्तर्मुखी प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में साधक अपने ज्ञानोपयोग को इन्द्रियों के विषयों व मन के विकल्पों से, पर-पदार्थों से एवं अपनी मलिन पर्यायों पर से हटा कर अखण्ड, अभेद, चिन्मात्र ज्योतिस्वरूप भगवान आत्मा पर केन्द्रित | करता है, अपने ज्ञानोपयोग को आत्मा पर स्थिर करता है। बस, इसे ही निश्चय से धर्मध्यान कहा जाता है। । वस्तुत: धर्मध्यान ज्ञानोपयोग की वह अवस्था है, जहाँ समस्त विकल्प शमित होकर एकमात्र आत्मानुभूति
ही रह जाती है, विचार-श्रृखंला रुक जाती है, चंचल चित्तवृत्तियाँ निश्चल हो जाती हैं। अखण्ड आत्मानुभूति | में ज्ञाता-ज्ञेय का एवं ध्याता-ध्येय का भी विकल्प नहीं रहता।
इसप्रकार निश्चय धर्मध्यान की साधना के लिए व्यवहार धर्मध्यान में चिंतित तत्त्वज्ञान के अभ्यास द्वारा ज्ञानोपयोग को आत्मकेन्द्रित किया जाता है, जबकि योग साधना के ध्यान शिविरों में आसन और प्राणायाम के माध्यम से साधकों को ध्यान करने के जो निर्देश दिये जाते हैं, उनमें ध्यान को अर्थात् ज्ञानोपयोग को नख से सिरपर्यन्त शरीर के एक-एक अंग पर, श्वासोच्छ्वास पर ले जाकर वहाँ रोकने और सांस को आतेजाते देखने-जानने और अमुक अंग शिथिल हो रहा है, शून्य हो रहा है - ऐसा अनुभव करने को कहा जाता है। अपने मन को श्वासोच्छ्वास पर ले जायें और साक्षीभाव से आते-जाते श्वासोच्छ्वास का अनुभव करें - ऐसे निर्देश दिये जाते हैं।
सबको स्वस्थ रहने का लाभ तो रहता ही है। स्वस्थ रहने की क्रिया स्वास्थ्य के लिए करें तो इसमें कोई बाधा नहीं; पर इसे धर्मक्रिया मानकर नहीं करना चाहिए। बीच-बीच में जो अपने इष्टदेव को स्मरण करने के निर्देश भी दिए जाते हैं। अत: उससमय वीतरागी सर्वज्ञदेव का ही स्मरण करें।
प्रश्न - आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का उल्लेख जिनागम में भी तो आया है न ? क्या स्वरूप है इनका और ध्यान में इनकी क्या उपयोगिता है ?
उत्तर - पूर्वाचार्यों ने जो प्राणायाम के तीन भेद बताये हैं, उसका भी उन्होंने उल्लेख किया है। प्राणायाम || के बारे में आगम का कथन इसप्रकार है -
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