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१२७ || सोपान (सीढ़ियाँ) हैं। इसमें चार कोट, पाँच वेदियाँ, इनके बीच में आठ भूमियाँ और सर्वत्र अन्तर भाग में तीन-तीन पीठ होते हैं।
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प्रत्येक दिशा में सोपानों से लेकर अष्टमभूमि के भीतर गन्धकुटी की प्रथम पीठ तक, एक-एक बीथी (गली, सड़क) होती है। बीथियों के दोनों बाजुओं में बीथियों जितनी ही लम्बी दो वेदियाँ होती हैं। आठों भूमियों के मूल में बहुत से तोरणद्वार होते हैं । सर्वप्रथम धूलिशाल नामक प्रथम कोट है। इसकी चारों दिशाओं में चार तोरण द्वार हैं। प्रत्येक गोपुर द्वार के बाहर मंगल द्रव्य नवनिधि व धूप घट आदि सहित पुतलियाँ (देवियों की मूर्तियाँ) स्थित हैं । प्रत्येक द्वार के मध्य दोनों बाजुओं में एक-एक नाट्यशाला है । ज्योतिषदेव इन द्वारों की रक्षा करते हैं। धूलिसाल कोट के भीतर चैतन्य प्रसाद भूमियाँ हैं । जहाँ पाँच-पाँच प्रासादों के अन्तराल से एक-एक चैत्यालय स्थित हैं। इस भूमि के भीतर पूर्वोक्त चार बीथियों के पार्श्वभागों में नाट्यशालाएँ हैं, जिनमें ३२ रंगभूमियाँ हैं । प्रत्येक रंगभूमि में ३२ भवनवासी कन्याएँ नृत्य करती हैं। भूमि के बहुमध्य भाग में चारों बीथियों के बीचोंबीच गोल मानस्तम्भ भूमि है । इस प्रथम चैत्यप्रासाद भूमि से आगे प्रथम वेदी है, इस वेदी से आगे स्वातिका भूमि है। जिसमें जल से पूर्ण खातिकाएँ हैं । इसके आगे पूर्व वेदिका सदृश ही द्वितीय वेदिका है। इसके आगे लताभूमि है, जो अनेकों क्रीड़ा पर्वतों व वापिकाओं आदि से शोभित है। इसके आगे दूसरा कोट है, यह यक्षदेवों से रक्षित है। इसके आगे उपवन नाम की चौथी भूमि है । जो अनेकप्रकार के वनों, वापिकाओं व चैत्य वृक्षों से शोभित है । सब वनों के आश्रित सब वीथियों के दोनों पार्श्व भागों में दो-दो (कुल १४) नाटयशालाएँ होती हैं। उनमें भवनवासी देवकन्याएँ और कल्पवासी देवकन्याएँ नृत्य करती हैं। इसके पूर्वसदृश ही तीसरी वेदी है, जो यक्षदेवों से रक्षित है। इसके आगे ध्वजभूमि है, जिसकी प्रत्येक दिशा में सिंह, गज आदि दस चिन्हों से चिन्हित १०८ ध्वजाएँ हैं । प्रत्येक ध्वजा अन्य १२८ क्षुद्रध्वजाओं से युक्त है। इसके आगे तृतीय कोट है । इसके आगे छठी कल्पभूमि है । जो | दसप्रकार के कल्पवृक्षों से तथा अनेकों वापिकाओं, प्रासादों, सिद्धार्थ वृक्षों (चैत्यवृक्षों) से शोभित है।
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