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है, इसका निर्णय हमें स्वविवेक से करना है, जो धर्मध्यान के ध्येय हैं, वे सब उपादेय हैं और आर्त-रौद्रध्यान | के ध्येय (ध्यान के विषय) हैं, वे सब हेय हैं।
धर्मध्यान की पात्रता - धर्मध्यान का ध्याता वस्तु के यथार्थज्ञान और संसार से वैराग्य सहित हो । इन्द्रिय और मन का विजेता हो, स्थिरचित्त और मुक्ति का इच्छुक हो, उद्यमी हो, शान्त परिणामी, धैर्यवान हो। उक्तं च - ज्ञान वैराग्य सम्पन्नः संवृतात्मा स्थिराशयः ।
मुमुक्षुरूद्यमी शान्तो, ध्याता वीरः प्रशस्यते ॥३॥ इसके अतिरिक्त ध्याता मैत्री-प्रमोद-कारुण्य और माध्यस्थ भावना सहित हो । विश्व के सूक्ष्म-स्थूल, त्रस-स्थावर आदि समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री भाव, दुखियों के प्रति करुणा का भाव, गुणजनों के प्रति प्रमोद भाव और विपरीत बुद्धिवालों के प्रति माध्यस्थ भाववाला हो। उक्तं च - सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं ।
माध्यस्थ भावं विपरीत बुद्धि सदा ममात्मा बिद धातु देव ।। हिन्दी पद्यानुवाद - प्रेमभाव हो सब जीवों में, गुणी जनों में हर्ष प्रभो।
करुणा स्रोत बहे दुःखियों पर, दुर्जन में मध्यस्थ विभो। धर्मध्यान की सिद्धि के लिए धर्मी जीव इन चारों भावनाओं को भी सहज ही भाते हैं। धर्मध्यान के योग्य स्थान - जहाँ क्षोभ मन उपजै, तहाँ ध्यान नहिं होय ।
ऐसे थान विरुद्ध हैं, ध्यानी त्यागें सोय ।। जहाँ मन में क्षोभ उत्पन्न करने के कारण विद्यमान हों, ऐसे स्थान धर्मध्याता पुरुष को तत्काल छोड़ देना चाहिए, क्योंकि सद् निमित्त की अपेक्षा वे स्थान ध्यान योग्य नहीं हैं।
धर्मध्यान के लिए उपयुक्त स्थानों का उल्लेख करते हुए कहा है कि -
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