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१४६॥ ३. धर्मध्यान - पाँचों इन्द्रियों के माध्यम से विषयों में विकेन्द्रित ज्ञान की किरणों को वहाँ से समेट
|| कर ज्ञायक स्वभावी आत्मा पर केन्द्रित करना ही धर्मध्यान है। जिसप्रकार तेजस्वी सूर्य की प्रखर विकेन्द्रित | किरणें मानव की कंपकंपी (ठंड) को भी कम नहीं कर पाती और वे ही किरणें लेंस (काँच) के द्वारा एक | वस्तु पर केन्द्रित कर देने से भोजन पका देती हैं। पानी गर्म कर देती हैं। इसीप्रकार ज्ञायकस्वभाव पर केन्द्रित हुई ज्ञान की किरणें कर्मकलंक को भस्म कर देती हैं। वही आत्मकेन्द्रित ज्ञान निश्चय धर्मध्यान है।।
जगत के समस्त पदार्थ जिसरूप से अवस्थित हैं और मात्र उदासीनरूप से ज्ञेयरूप ज्ञान में ज्ञात होते हैं, वे सब व्यवहार धर्मध्यान के विषय बनते हैं।
तात्पर्य यह है कि ध्यान में उदासीनरूप से समस्त पदार्थों के स्वरूप का चिन्तवन किया जा सकता है; क्योंकि तत्त्व का चिन्तवन ध्यान करनेवाले जीव के उपयोग की विशुद्धि के लिए होता है। उपयोग की विशुद्धि होने से यह बन्ध के कारणों को नष्ट कर देता है, बन्ध के कारण नष्ट होने से उसके संवर और निर्जरा होने लगती है तथा संवर और निर्जरा होने से इस जीव की नि:संदेह मुक्ति हो जाती है।
ज्ञातव्य है कि आत्मज्ञानपूर्वक राग-द्वेष से रहित होकर किसी भी वस्तु का अर्थात् परज्ञेय का ध्यान करके भी मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। ___अध्यात्मतत्त्वों का चिन्तन करनेरूप धर्म ध्यान हमें करने योग्य है। सात तत्त्वों, नौ-पदार्थों एवं छहद्रव्यों के स्वरूप का चिन्तन-मनन करना - ये सब धर्मध्यान के अन्तर्गत आते हैं, अत: इनका ध्यान भी करने योग्य हैं। नय, प्रमाण, निक्षेप, सप्तभंगी और स्याद्वाद वाणी द्वारा प्रगट सिद्धान्त शास्त्रों की सम्पूर्ण विषयवस्तु भी ध्यान करने योग्य ध्येय हैं।
जगत के समस्त पदार्थ शब्द, अर्थ और ज्ञान - इन तीन भेदों में समाहित हैं। इसलिए शब्द, अर्थ और || सर्ग ज्ञान को अपने ध्यान का ध्येय बनाने पर जगत के समस्त पदार्थ ध्येय हो जाते हैं। इनमें कौन से ध्येय उपादेय || १२
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