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तथा चौथा निदान से अर्थात् भोगों की आकांक्षा से हुए संक्लेश परिणामों से होता है। यह ध्यान दूसरे पुरुषों की भोगोपभोग सामग्री देखने से भी होता है।
इसप्रकार यह आर्त ध्यान इष्टवस्तु की प्राप्ति के लिए, अनिष्टवस्तु की अप्राप्ति के लिए, भोगोपभोग की इच्छा के लिए और वेदना दूर करने के लिए बार-बार चिन्तन से होता है। यह कषाय आदि प्रमाद से होता है और अत्यन्त अशुभ कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओं के आश्रय से भी उत्पन्न होता है।
इस आर्तध्यान का काल अन्तर्मुहूर्त है और आलम्बन अशुभ है। इस आर्तध्यान में क्षयोपशमिक भाव होता है। तिर्यंचगति इसका फल है।
परिग्रह में अति आसक्ति, कुशीलरूप प्रवृत्ति, कृपणता, अत्यन्त लोभी, भय, उद्वेग, अति शोक - ये आर्तध्यान के चिह्न हैं । इसीप्रकार हाथों पर कपोल (गाल) रखकर पश्चात्ताप की मुद्रा, आंसू बहाना आदि भी आर्तध्यान के बाह्यचिह्न हैं। यह शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का भी होता है। ज्ञातव्य है कि शुभ आर्तध्यान का अस्तित्व छटवें गुणस्थान तक होता है।
दूसरा रौद्रध्यान - जो पुरुष प्राणियों को रुला कर, दुःखी कर आनन्दित होता है, वह रुद्र अथवा क्रूर निर्दय कहलाता है। ऐसे जीवों को जो ध्यान होता है, वह रौद्रध्यान कहलाता है। यह ध्यान पाँचवें गुणस्थान तक होता है तथा यह कृष्ण-नील-कापोत - इन तीन अत्यन्त अशुभ लेश्याओं के बल से होता है। एकसाथ अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रहता है। आर्तध्यान की भांति इसका भी क्षायोपशमिक भाव होता है। यह रौद्र ध्यान भी चार प्रकार का होता है। १. हिंसानन्द अर्थात् हिंसा में आनन्द मानना । २. मृषानन्द अर्थात् झूठ बोलने में आनन्द मानना। ३. स्तेयानन्द अर्थात् चोरी में आनन्द मानना और ४. संरक्षणानन्द अर्थात् परिग्रह की रक्षा में दिन-रात लगा रहकर आनन्द मानना।
१. हिंसानंद - प्राणियों को मारने और बांधने की इच्छा रखना, अंगोपांगों को छेदना, संताप देना, | || कठोर दण्ड देना आदि को हिंसानन्द रौद्रध्यान कहते हैं। जीवों पर दया न करनेवाला हिंसक हिंसानन्द नाम ||१२
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