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भगवान ऋषभदेव की दिव्यदेशना में ध्यान का स्वरूप तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के समवसरण में एक भव्य श्रोता के मन में यह जिज्ञासा जागृत हुई कि हे | भगवन ! चार ध्यानों में प्रारंभ के जो दो आर्त और रौद्रध्यान हैं, इन्हें आगम में कुगति का कारण बताया है, इनका स्वरूप क्या है ? और इनसे कैसे बचा जाय ? और धर्मध्यान जो सुगति का कारण है, उसका स्वरूप क्या है और उसे कैसे किया जाय ?
उपर्युक्त प्रश्न के समाधान स्वरूप भगवान की दिव्यध्वनि में सामान्य ध्यान का स्वरूप इसप्रकार आया - "तन्मय होकर किसी एक ही वस्तु में चित्त का एकाग्र होना या निरोध होना ध्यान है। यदि वह विषयकषायों सहित संयोगों में लीन होता है तो वह खोटा ध्यान आर्त और रौद्रध्यान की श्रेणी में आता है और तत्त्व चिन्तनरूप होता है तो धर्मध्यान की श्रेणी में आता है। सामान्यत: चित्त का स्थिर होना ध्यान है और चित्त की चंचल तरंगों को अनुप्रेक्षा, चिन्तन या भावना कहते हैं।
वस्तुतः धर्मध्यान वही है, जिसकी वृत्ति अपने बुद्धिबल के आधीन होती है और जिसमें तत्त्वविचार होता है। इसके विपरीत विषय-कषायरूप ध्यान अपध्यान कहलाता है। योग, ध्यान, समाधि, मन को वश में || करना, अंत:संलीनता आदि सब धर्मध्यान के ही पर्यायवाचक शब्द हैं।
यद्यपि ध्यान ज्ञान की ही पर्याय है और वह ध्यान ध्येय को ही विषय करनेवाला है तथापि एकाग्रता के कारण ज्ञान-दर्शन-सुख और वीर्यरूप व्यवहार को भी ध्यान में सम्मिलित कर लिया जाता है।
आत्मा का जो प्रदेश ज्ञानरूप है वही प्रदेश दर्शनसुख और वीर्यरूप भी हैं। इसलिए एक ही जगह रहने ||१२
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