________________
१४०
श
ला
का
पु
रु
ष
हे प्रभु! जगत को सुशोभित करनेवाला आपका यह शरीर आभूषण रहित होने पर भी अत्यन्त सुन्दर है, क्योंकि जो स्वयं दैदीप्यमान होता है, वह दूसरे आभूषण की अपेक्षा नहीं रखता ।
हे भगवन! यद्यपि आपके मस्तिष्क पर न तो सुन्दर केशपाश हैं और न मुकुट है, तथापि वह अत्यन्त सुन्दर है । हे नाथ! यद्यपि आपके हाथों में हथियार नहीं है; फिर भी आपने मोह शत्रु को जीत लिया है। "
इसप्रकार इन्द्र ने एक हजार आठ विशेषणों से ऋषभ जिनेन्द्र की भक्ति की । अन्त में प्रार्थना की कि “हे भगवन! भव्यजीव रूपी धान्य पापरूप अनावृष्टि से सूख रहे हैं। अत: उन्हें धर्मरूपी अमृत जल से सींचकर | उन्हें पल्लवित कीजिए। हे प्रभो! यह धर्मचक्र तैयार है । मोक्षमार्ग में रोड़ा अटकानेवाली मोह की सेना को नष्ट कर चुकने के बाद अब आपका समीचीन धर्म का उपदेश देने का समय आ गया है । अत: विहार कीजिए । " इन्द्र की प्रार्थना तो उपचारमात्र थी। वीतरागी जिनेन्द्र का स्वयं ही विहार का सुअवसर आ चुका था । अतः समवसरण सहित भगवान का विहार प्रारंभ हो गया ।
में
जिससमय दिव्यध्वनि द्वारा धर्मामृत बरसता था, उस समय भव्य श्रोता संतोष धारण कर सुख के सागर जाते थे । दिव्यध्वनि द्वारा समीचीन मार्ग दर्शानेवाले भगवान का समवसरण काशी, अवन्ती, कुरु,
भ.
नि
द्वा
रा
जिनेन्द्र भगवान के ऊपर तीन छत्र, चारों ओर चार चमर एवं पीछे भामण्डल दैदीप्यमान हो रहा था । | वे मेरुवत ऊँचे सिंहासन पर विराजित थे, छाया और फल सहित अशोकवृक्ष अपने नाम को सार्थक करता हुआ सबको शोकरहित कर रहा था । जो मानस्तम्भ मिथ्यादृष्टियों के अहंकार और संदेह का गलानेवाले | थे। समोसरण ऊँचे कोट और गहरी खाई एवं उनके पास लतावनों से सुशोभित था । किन्नर देव जोर-जोर से यश गा रहे हैं। प्रकाशमान बड़े-बड़े स्तूपों से उसका वैभव प्रगट हो रहा था। ऐसे समोसरण के साथ तीनों | लोकों के स्वामी, धर्म के अधिपति आदिपुरुष भगवान ऋषभदेव ने विहायोगति नामकर्म के निमित्त से विहार करना प्रारंभ किया ।
त
त्त्वो
डूब
ऋ
ष
भ
व
की
दि
व्य
प
दे
श
सर्ग
११