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सिद्धक्षेत्रे महातीर्थे पुराणपुरुषाश्रिते ।
कल्याण कालिते पुण्ये ध्यान सिद्धि प्रजायते ।। सिद्धक्षेत्र, जो तीर्थंकरों के आश्रयस्थान रहे हों, तीर्थंकरों के कल्याणकों के स्थान हो - ऐसे परम पवित्र एकान्त स्थानों में ध्यान की सिद्धि होती है।
धर्मध्यान के मुख्य चार भेद - १. आज्ञाविचय, २. अपायविचय, ३. विपाकविचय ४. संस्थान विचय।
१. आज्ञाविचय - पाँच अस्तिकाय तथा छह जीवनिकाय आदि वस्तुस्वरूप के चितवन में जहाँ अपनी मति की गति न हो, उसे सर्वज्ञ की आज्ञा मानकर चिन्तवन करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है। ____ आगम में आज्ञाविचय का जो स्वरूप कहा है, उसका सारांश यह है कि तीव्र कर्मोदय से जिनकी मति || मंद है, वे स्वयं तो अमूर्त व सूक्ष्म पदार्थों का निर्णय कर नहीं सकते और तत्त्वज्ञानी उपदेशक सर्वत्र सदाकाल सुलभ नहीं होते तथा अमूर्त आत्मा और धर्म, अधर्म द्रव्यों की सिद्धि के लिए ऐसे दृष्टान्त व हेतु लोक में उपलब्ध नहीं होते जिनसे उन सूक्ष्म तत्त्वों को समझा जा सके।
ऐसी स्थिति में मन्दबुद्धि मुमुक्षु जीवों को एकमात्र जिनाज्ञा को प्रमाण मानना ही शरणभूत है; क्योंकि जिनेन्द्र भगवान वीतराग व सर्वज्ञ होने से अन्यथावादी नहीं होते। कहा भी है - 'नान्यथा: वादिनोजिनः' अत: सर्वज्ञकथित आगमोक्त सूक्ष्मतत्त्व का चिन्तवन करना आज्ञा-विचय धर्मध्यान है तथा स्व-समय परसमय के ज्ञाता तत्त्वज्ञानी वक्ता और लेखकों द्वारा सर्वज्ञप्रणीत अतिसूक्ष्म पंचास्तिकाय, जीवनिकाय तथा आत्मा-परमात्मा के स्वरूप का आगम व युक्तियों के आलम्बन से एवं सरल-सुबोध दृष्टान्तों से जनसाधारण को समझाना और मिथ्यावादियों के तर्कजाल का भेदन करके उन्हें जिनमत सुनने-समझाने के प्रति सहिष्णु बनाना - ये सब कार्य भी आज्ञाविचय धर्मध्यान की सीमा में आते हैं; क्योंकि इनमें भी सर्वज्ञ की वाणी का ही चिन्तन-मनन एवं प्रचार-प्रसार होता है।
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