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मन्द-सुगंध बयार पुनि, गंधोदक की वृष्टि । भूमिविर्षे कंटक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टि ।। धर्मचक्र आगे रहे, पुनि वसु मंगल सार ।
अतिशय श्री अरहंत के, ये चौंतीस प्रकार ।। १. भगवान की अर्द्धमागधी भाषा का होना, २. समस्त जीवों में परस्पर मित्रता का होना, ३. दिशाओं का निर्मल होना, ४. आकाश का निर्मल होना, ५. सब ऋतु के फल-फूलों का एक ही समय में फलना, ६. एक योजन तक की पृथ्वी का दर्पण की तरह निर्मल होना, ७. चलते समय भगवान के चरणकमलों के तले स्वर्ण-कमलों का होना, ८. आकाश में जय-जय ध्वनि का होना, ९. मन्द सुगंधित पवन का चलना, १०. सुगंधमय जल की वृष्टि होना, ११. भूमि का कण्टकरहित होना, १२. समस्त जीवों का आनन्दमय होना, १३. भगवान के आगे धर्मचक्र का चलना, १४. छत्र-चंवर, ध्वजा-घण्टा आदि - आठ मंगल द्रव्यों का साथ रहना - ये चौदह अतिशय देवकृत होते हैं।
उक्त १२ सभाओं के सिवा समवसरण में बाग-बगीचे, नाट्य शालायें आदि अनेक प्रकार की सुन्दर रचनायें होती हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण इसप्रकार है -
समवसरण का स्वरूप - समवसरण निम्नांकित प्रारूप से निर्मित होता है। सामान्य भूमि, सोपान, विन्यास, वीथी, धूलिशाल नामक प्रथम कोट, चैत्यप्रासाद भूमियाँ, नृत्यशाला, मानस्तम्भ, वेदी, खातिकाभूमि, वेदी, लताभूमि, साल नामक द्वितीय कोट, उपवनभूमि, नृत्यशाला, वेदी, ध्वजभूमि, साल नामक तृतीय कोट, कल्पभूमि, नृत्यशाला, वेदी, भवनभूमि, स्तूप, साल चतुर्थ कोट, श्रीमण्डप, ऋषि आदि | गण, वेदी पीठ, द्वि-पीठ, तृतीय पीठ और गन्धकुटी आदि।
उपर्युक्त प्रारूप का संक्षिप्त विवरण इसप्रकार है - समवसरण की सामान्य भूमि गोल होती है। इसकी प्रत्येक दिशा में आकाश में स्थित बीस-बीस हजार || १०
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