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१३४|| था और न आगे ही होगा। इसप्रकार आप्त आदि तीनों के विषय में श्रद्धान की दृढ़ता होने से सम्यग्दर्शन ||
में विशुद्धता उत्पन्न होती है। | जो अनन्तज्ञान आदि गुणों से सहित, घातिकर्मों से रहित, कृतकृत्य हो तथा सबके भला होने में सनिमित्त
हो, वह आप्त है। जो आप्त का कहा हो, वह आगम है। अनन्तसुख का अभ्युदय प्राप्त सिद्धपरमेष्ठी मुक्तजीव कहे | जाते हैं। इसीतरह अजीवतत्त्व को जानकर उसका यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान भी मोक्षमार्ग की प्राप्ति हेतु आवश्यक है।
अजीव तत्त्व :- धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल तथा काल ये पाँच द्रव्य अजीवतत्त्व हैं। जो जीव | और पुद्गलों के गमन में सहायक कारण हो, उसे धर्मद्रव्य कहते हैं और जो उन्हीं के स्थित होने में सहकारी कारण हो उसे अधर्मद्रव्य कहते हैं। धर्म और अधर्म - ये दोनों ही द्रव्य या पदार्थ अपनी इच्छा से गमन करते और ठहरते हुए जीव तथा पुद्गलों के गमन करने और ठहरने में सहायक (निमित्त) होकर प्रवृत्त होते हैं, स्वयं किसी को प्रेरित नहीं करते । जिसप्रकार जल के बिना मछली का गमन नहीं हो सकता, फिर भी जल मछली को प्रेरित नहीं करता, उसीप्रकार जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य धर्मद्रव्य के बिना नहीं चल सकते, फिर भी धर्मद्रव्य उन्हें चलने को प्रेरित नहीं करता। अधर्मास्तिकाय द्रव्य भी वृक्ष की छाया की भांति उदासीन होकर जीव और पुद्गलों को स्थित करने में निमित्त होता है, परन्तु स्वयं ठहरने की प्रेरणा नहीं देता। ___ जो जीव और पुद्गलों को अवकाश (ठहरने को स्थान) देता है, उसे आकाशद्रव्य कहते हैं। यह आकाश स्पर्शरहित है, सबजगह व्याप्त है और क्रियारहित है। जिसका वर्तना लक्षण है, उसे कालद्रव्य कहते हैं। वह वर्तना काल तथा काल से भिन्न जीवादि पदार्थों के आश्रय रहती है और सब पदार्थों का जो अपने-अपने गुण तथा पर्यायरूप परिणमन करती है, उसमें निमित्त कारण होती है। जिसप्रकार कुम्हार का चक्र फिरने में उसके नीचे लगी कील कारण होती है, उसीप्रकार कालद्रव्य भी सब पदार्थों के परिवर्तन में कारण होता है। देखो, यद्यपि कुम्हार का चाक स्वयं घूमता है; किन्तु चक्र के नीचे केन्द्र में जिस कील पर वह चक्र रखा होता है, उसके बिना नहीं घूमता । बस, इसीतरह कालद्रव्य की निमित्तता भी सभी द्रव्यों के परिवर्तन या परिणमन में होती ही है।
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