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| पर्यायों की अपेक्षा उसका उत्पाद और विनाश होता रहता है, उसी प्रकार यह जीव नित्य है, परन्तु पर्यायों
की अपेक्षा उसमें भी उत्पाद एवं विनाश होता रहता है। | तात्पर्य यह है कि द्रव्यत्व सामान्य की अपेक्षा जीव द्रव्य नित्य है और पर्यायों की अपेक्षा अनित्य है। | एकसाथ दोनों अपेक्षाओं से यह जीव उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यरूप है। जो पर्यायें पहले नहीं थीं उसका उत्पन्न
होना उत्पाद कहलाता है। किसी पर्याय का उत्पाद होकर नष्ट हो जाना व्यय कहलाता है और दोनों का | पूर्व पर्यायों में तदवस्थ होकर रहना ध्रौव्य कहलाता है। इसप्रकार यह आत्मा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - इन तीनों लक्षणों से सहित है।
उपर्युक्त कहे हुए स्वभाव से युक्त आत्मा को नहीं जानते हुए मिथ्यादृष्टि पुरुष उसका स्वरूप अनेक प्रकार से मानते हैं, जो ठीक नहीं है। जीव की दो अवस्थायें मानी गईं हैं - एक - संसार और दूसरी - मोक्ष। ||
नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव - इन चार भेदों से युक्त संसाररूपी भंवर में परिभ्रमण करना संसार पर्याय है और समस्त कर्मों का क्षय मोक्ष पर्याय है।
वह मोक्ष अनन्तसुख स्वरूप है तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप साधन से प्राप्त होता है। सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और समीचीन पदार्थों का प्रसन्नतापूर्वक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
यह सम्यग्दर्शन मोक्षप्राप्ति का पहला साधन है। जीव-अजीव आदि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करनेवाला तथा अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करनेवाला ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में समताभाव धारण करने को सम्यक्चारित्र कहते हैं। ये तीनों मोक्ष के कारण कहे गये हैं।
सम्यग्दर्शन के होने पर ही ज्ञान और चारित्र फल देनेवाले होते हैं। इसीप्रकार सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के रहते हुए ही सम्यक्चारित्र मोक्ष का कारण होता है। जिसप्रकार अंधपुरुष का दौड़ना उसके पतन का ही कारण होता है, उसीप्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से शून्य पुरुष का चारित्र भी उसके पतन का कारण है, कुगति का कारण है।
जिनागम में आप्त, आगम व पदार्थों का जो स्वरूप कहा गया है, उससे अधिक व कम न तो है, न ॥१३)
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