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भगवान ऋषभदेव की दिव्यध्वनि द्वारा भरत को तत्त्वोपदेश जीवतत्त्व एवं अजीवतत्त्व को जानने के उपाय - एकदिन महाराजा भरत को राज्य दरबार में एकसाथ ३ समाचार मिले । १. (तीर्थंकर) मुनि ऋषभदेव को केवलज्ञान की प्राप्ति । २. आयुधशाला में चक्ररत्न प्राप्ति की सूचना । ३. स्वयं के पुत्ररत्न की प्राप्ति । उन्होंने सर्वप्रथम समवशरण में जाकर तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा की एवं मन में उत्पन्न हुए प्रश्न पूछे।
“प्रभो ! जीवतत्त्व एवं अजीवतत्त्व का क्या स्वरूप है और उनको जानने के क्या-क्या उपाय हैं ?"
भगवान ऋषभदेव की दिव्यध्वनि में आया - "जिसमें चेतना अर्थात् जानने-देखने की शक्ति पायी जाये उसे जीव कहते हैं। वह अनादिनिधन है। द्रव्यदृष्टि की अपेक्षा न तो वह कभी उत्पन्न हुआ है और न कभी नष्ट ही होगा। इसके सिवाय वह स्वभाव से ज्ञाता-दृष्टा है; परन्तु संसार अवस्था में द्रव्यकर्म और भावकों को करनेवाला है। ज्ञानादि गुण तथा शुभ-अशुभ कर्मों के फलों का भोक्ता है और स्वदेह प्रमाण है। न सर्वव्यापक है और न अणुरूप है, अनेक गुणों से युक्त है। उर्ध्वगमन स्वभाववाला है। नामकर्म के उदय से जितना छोटा-बड़ा शरीर प्राप्त होता है, तदनुसार संकोच-विस्ताररूप हो जाता है।
उस जीव का अन्वेषण गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहारक - इन चौदह मार्गणास्थानों द्वारा होता है। इन मार्गणा स्थानों में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर और अल्पबहुत्व आदि अनुयोगों के द्वारा विशेष रूप से जीव का अन्वेषण किया जाता है। इसीप्रकार चौदह गुणस्थानों के द्वारा भी जीवतत्त्व का अन्वेषण किया जाता है। ये जीवतत्त्व के जानने के उपाय हैं।
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