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मैंने राजा के साथ दो चारणऋद्धि धारक मुनिराजों को आहारदान दिया था, उन संस्कारों का स्मरण होने || से मैंने आज भी उसी विधि से आहार दान दिया।"
“अहा! सच्चे सन्तों को आहार दान देने का अवसर प्राप्त होना भी बहुत बड़े पुण्य का फल है। ऐसा कल्याणकारी पावन अवसर पाना आपका परम सौभाग्य है" - इसप्रकार राजा श्रेयांस की प्रशंसा करते हुए महाराज भरत ने राजा श्रेयांस के सुकृत की और सौभाग्य की बारम्बार सराहना की।
दान का स्वरूप समझाते हुए राजा श्रेयांस महाराजा भरत से कहते हैं कि “स्वपर के उपकार हेतु मनवचन-काय की शुद्धिपूर्वक अपनी वस्तु योग्यपात्र को सम्मानपूर्वक देने को दान कहते हैं। जो श्रद्धादि गुणों से सहित हो वह दाता है। आहार, औषधि, शास्त्र तथा अभय - ये चारों वस्तुएँ देय हैं। जो रागादि दोषों से दूर और सम्यक्त्वादि गुणों से सहित वह ही पात्र है। उनमें जो मिथ्यादृष्टि है; किन्तु व्यवहार में व्रत-शील संयम धारण करनेवाले जघन्य पात्र हैं। अव्रती सम्यकदृष्टि मध्यमपात्र हैं और व्रत शील सहित समकिती उत्तम पात्र हैं। तथा व्रतशील से रहित मिथ्यादृष्टि पात्र नहीं हैं, अपात्र हैं।
यहाँ जो दिव्य पंचाश्चर्य हुए, रत्नवृष्टि आदि हुई - ये सब दान की महिमा को प्रगट करते हैं। अब मुनिराज ऋषभदेव के तीर्थ में उत्तम, मध्यम आदि पात्र सर्वत्र फैल जाएंगे। जहाँ-तहाँ मुनि विचरेंगे। इसलिए हे भरत! दान की विधि जानकर आपको भी भक्तिपूर्वक आहारदान देना चाहिए।"
इसप्रकार दान का उपदेश देकर राजा श्रेयांस ने दान तीर्थ का प्रवर्तन किया । राजा श्रेयांस के श्रेयस्कर वचन सुनकर राजा भरत को उनके प्रति प्रीति उत्पन्न हुई और उन्होंने अति हर्ष से राजा श्रेयांस और सोमप्रभ का सम्मान किया।
आहार लेकर वन में पधारे मुनि ऋषभदेव की इन्द्रों ने एवं देवों ने इसप्रकार जोर-जोर से स्तुति की - "हे स्वामिन् ! यद्यपि हम जैसे जीव आपके अगणित गुणों की स्तुति नहीं कर सकते, तथापि भक्ति के वश | || स्तुति के बहाने हम अपने परिणामों की विशुद्धि एवं आत्मा की उन्नति ही कर रहे हैं। हे प्रभो! वैसे तो आप
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