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रंग के संसर्ग से लाल हो जाता है। इसी बीच एक घटना घटी - राजा ऋषभदेव के राजदरबार में नृत्य करतेकरते बीच में ही नीलांजना की मृत्यु हो गई/दर्शकों के मनोरंजन में विघ्न न हो एतदर्थ तत्काल वैसी ही इन्द्र द्वारा अन्य देवांगना उपस्थित कर दी गई। लोगों को पता ही न चला कि नृत्यांगना बदल गई है। पर ऋषभदेव की सूक्ष्मदृष्टि से बात छुपी न रह सकी। | जगत के इस स्वार्थीपन ने उनके चित्त को विरक्त कर दिया। वे सोचने लगे कि हमारा मनोरंजन इतना महत्त्वपूर्ण हो गया कि नृत्यांगना की मौत की कीमत पर भी हमारे रंग में भंग नहीं पड़ना चाहिए।
यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि “मौतें तो उन्होंने पहले भी देखी थीं, नीलांजना की मौत ही उनके वैराग्य की निमित्त क्यों बनी, वस्तुत: नीलांजना की मृत्यु कारण नहीं बनी; बल्कि जगत की निष्ठुरता और स्वार्थीपना देख उनका दिल दहल गया । वे सोचने लगे जगत के जीव बड़े स्वार्थी हैं, निष्ठुर हैं, जहाँ इनका स्वार्थ सधता हो वहाँ दूसरों की पीड़ा की ये किंचित् भी परवाह नहीं करते।"
ऋषभदेव यह सब पहले से जानते थे; क्योंकि वे तो ज्ञानी थे, धर्मात्मा थे; पर अभी तक उन्हें वैराग्य क्यों नहीं हुआ? इन सबका एक ही उत्तर है कि अभी उनकी काललब्धि नहीं आई थी। अभी वैराग्य का स्वकाल नहीं आया था अर्थात् अभी उनकी पर्यायगत योग्यता का परिपाक नहीं हुआ था। निमित्तों से क्या होता है, जब तक जीव की योग्यता का परिपाक न हो । वस्तुत: अन्तर की तैयारी के बिना कुछ नहीं होता।
ऋषभदेव तो जन्म से ही क्षायिक समकिती थे, अवधिज्ञानी थे, तीर्थंकर थे, तद्भवमोक्षगामी थे, परंतु जबतक उनकी योग्यता का परिपाक नहीं हुआ, तबतक वैराग्य नहीं हुआ । काललब्धि आते ही पाँचों समवाय एकसाथ मिल गये और उन्हें वैराग्य हो गया।
ऋषभदेव प्रत्युत्पन्नमति तो थे ही, नीलांजना की निमिषमात्र में अचानक मृत्यु के प्रसंग में ऋषभदेव भवतन-भोग से विरक्त हुए ही इन्द्र के इस सद्भिप्राय को भी समझ गये कि इन्द्र ने मुझे प्रतिबोधन हेतु नृत्य || सर्ग | के लिए जानबूझकर यही नीलांजना राजदरबार में भेजी। वे इन्द्र की चतुराई से प्रसन्न हुए और बारह
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