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अनिवार्य है। यद्यपि मोक्षाभिलाषी मुनियों को यह शरीर न तो कृश ही करना है और न ही स्वादिष्ट पौष्टिक भोजन से इसे पुष्ट ही करना है। जिसप्रकार ये इन्द्रियाँ और मन अपने वश में रहें, कुमार्ग की ओर न दौड़े, इसप्रकार की शुद्ध आहार-विहार की मध्यमवृत्ति का आश्रय ले लेना चाहिए। प्राणधारण करने के लिए आहार ग्रहण करना जिनवाणी में भी दर्शाया गया है। कायक्लेश भी उतना ही करना चाहिए, जितने से संक्लेश न हो। | हाँ, वात-पित्त-कफ आदि दोषों को दूर करने के लिए आवश्यक उपवास आदि भी करना चाहिए तथा प्राणधारण के लिए शुद्ध एवं विधिवत् आवश्यकतानुसार अल्प आहार भी ग्रहण करना चाहिए अन्यथा चित्त चंचल हो जाता है और मुक्तिमार्ग से च्युत भी हो जाता है। संयमरूपी यात्रा की सिद्धि के लिए शरीर के पोषक गरिष्ठ एवं रसीले आहार में आसक्त न होकर निर्दोष एवं सुपाच्य आहार ग्रहण करना चाहिए।"
इसप्रकार निश्चय कर धीर-वीर मुनिवर ऋषभदेव ने आहारचर्या के पथ प्रदर्शन हेतु योग समाप्त कर आहार हेतु ईर्यासमिति पूर्वक विहार किया। गृहस्थ लोग मुनिवर की प्रतीक्षा में बैठे-बैठे वही चर्चा कर रहे थे कि मुनिवर के दर्शन पाकर वे धन्य हो गये।
मुनिराज जहाँ-जहाँ भी आहार के लिए पधारते वहाँ के लोग प्रसन्नता से भक्तिपूर्वक नमन करते और उन्हें नंगे पैर, नग्नदशा में देखकर जूते-कपड़े भेंट करते तथा पूछते कि हे देव! कहिए क्या आज्ञा है? आप जिस कार्य के लिए यहाँ पधारे, वह हमें बताइए, आज्ञा दीजिए। अनेक लोग उन्हें पैदल चलता देख हाथीघोड़े-रथ-वस्त्राभूषण-रत्न तथा भोजनादि सामग्री मुनिराज को अर्पण करने के लिए लाते । कोई उनका गृहस्थ जीवन बसाने हेतु अपनी युवती कन्या को मुनिराज से ब्याहने का प्रस्ताव करते, ताकि उनका गृहस्थ जीवन पुनः व्यवस्थित हो सके।
मुनिराज सोचते - "अरे! रे! कैसी अज्ञानता है यह ?" यह सोचकर मुनिराज चुपचाप आगे चले जाते। सर्ग | वे किसलिए पधारे हैं ? यह नहीं समझ पाने से कुछ लोग तो अश्रुपूरित नेत्रों से मुनिराज के चरणों से लिपट
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