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सलाह की जरूरत नहीं है। यद्यपि आप सौम्य, शान्त और तेजस्वी हैं, आप कोई भद्रपरिणामी महापुरुष | लगते हैं; परन्तु हमारे बीच में पड़कर अपनी मूर्खता का परिचय क्यों देते हो? हमें माफ करो। हम आपको | मूर्ख कहने की गुस्ताखी नहीं कर सकते; परन्तु दो के बीच में बोलने वालों को नीतिकारों ने मूों की श्रेणी | में रखा है। अतः हमारी हाथ जोड़कर प्रार्थना है कि आप हमारे बीच में न पड़े तो उत्तम है। हम तो ऋषिराज | ऋषभदेव को प्रसन्न करना चाहते हैं, ये ही हमारे सर्वस्व हैं। हम इन्हें छोड़ कर अन्यत्र कहीं जानेवाले नहीं हैं।"
राजकुमारों की मुनिराज के प्रति श्रद्धा-भक्ति देखकर वह धरणेन्द्र अपने असली रूप में प्रगट होकर बोला - "हे कुमारो ! मैं धरणेन्द्र हूँ और मुनिराज का सेवक हूँ। मैं मुनिवर के प्रति तुम्हारी भक्तिभावना से तुमसे प्रसन्न हूँ, चलो मैं तुम्हें मुनिवर ऋषभदेव के ही पूर्व आदेशानुसार और तुम्हारी इच्छानुसार विजया पर्वत की पूर्व श्रेणी और उत्तर श्रेणी का राजपाट और भोग-सामग्री देता हूँ।"
धरणेन्द्र की बात सुनकर दोनों कुमार प्रसन्न हुए। उन्हें लगा कि सचमुच मुनिराज ऋषभदेव हमारे ऊपर प्रसन्न हो गये हैं। उनके पुण्य योग से और धरणेन्द्र के निमित्त से उन दोनों के मनोरथ पूर्ण हो गये।
विजयार्द्ध पर्वत की प्रशंसा करते हुए धरणेन्द्र ने नमि और विनमि राजकुमारों को विजयार्ध पर्वत का || परिचय कराया। राजकुमारों ने भी पर्वत की प्रशंसा सुनकर प्रसन्नता प्रगट की। पश्चात् उस धरणेन्द्र के साथ पर्वत से नीचे उतर कर अति श्रेष्ठ रथनूपुरचक्रवाल नामक नगर में प्रवेश किया। धरणेन्द्र ने वहाँ उन दोनों को सिंहासन पर बैठाकर सब विद्याधरों से कहा कि “ये तुम्हारे स्वामी हैं।" और फिर उस धरणेन्द्र ने विद्याधारियों के हाथों से उठाये हुए स्वर्ण कलशों से इन दोनों का राज्याभिषेक किया। इसके पश्चात् धरणेन्द्र ने विद्याधरों से कहा - "जिसप्रकार इन्द्र स्वर्ग का अधिपति है, उसीप्रकार यह नमि अब दक्षिणश्रेणी का अधिपति है और यह विनमि उत्तर श्रेणी का अधिपति है। कर्मभूमि की व्यवस्था से अनजान प्राणियों को मार्गदर्शन देनेवाले जगद्गुरु तीर्थंकर राजा ऋषभदेव ने अपनी सम्मति से इन नमि-विनमि राजकुमारों को यहाँ भेजा है, इसलिए सब विद्याधर राजा प्रेम से मस्तक झुकाकर इनकी आज्ञा का पालन करें।"
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