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जन्माभिषेक के पश्चात् बाल तीर्थंकर ऋषभदेव की सौधर्म इन्द्र द्वारा स्तुति की गई। स्तुति का सार इसप्रकार है - "हे देव! मिथ्याज्ञान रूप अंधकूप में पड़े हम संसारी प्राणियों को प्रकाशमय धर्मभूमि पर निकालने हेतु एकमात्र आप ही हस्तावलम्बन हैं। आपकी दिव्यध्वनि रूप वचन किरणों द्वारा हमारे हृदय का घोर अज्ञान अंधकार नष्ट होगा। हे प्रभु! आपका प्रगट होनेवाला केवलज्ञानसूर्य अनन्त पदार्थों को | एकसाथ प्रकाशित करनेवाला होगा। हे नाथ! आप अतुल्यबल के धारक हैं, इसकारण आपके नववें पूर्व भव का 'महाबल' नाम अब सार्थक हो गया है, आप ललित अंग के धारी हैं, अत: आठमें पूर्व भव में ष आपकी ललितांगदेव संज्ञा भी आज सार्थक हुई है। इसीप्रकार आपके जितने भी पूर्वभवों के नामों के उल्लेख पुराणों में प्राप्त हैं, आपने इस वर्तमान ऋषभदेव के भव में उन सब नाम निक्षेपों के नामों को भावनिक्षेप | में परिवर्तित कर दिया है, सभी नामों को सार्थक सिद्ध कर दिया है ।
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इसप्रकार जो तीनलोक के अधिपति हैं, इन्द्रादि द्वारा पूज्य हैं, हमें भी उनका आश्रय लेने योग्य है । ऐसे भगवान ऋषभदेव नाभिराज के घर में दिव्य भोग भोगते हुए देव कुमारों के साथ-साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करते रहे। प्रौढ़ होने पर विधिवत् राज्यशासन का संचालन करते रहे ।
जब राजकुमार ऋषभदेव युवा हुए तो माता-पिता को उनके विवाह करने का विकल्प आया । वे सोचने लगे “यद्यपि ऋषभ एकदम आध्यात्मिक प्रकृति का है। राग-रंग में उसका मन बिल्कुल नहीं लगता। वह निरन्तर आत्मचिन्तन में ही रत रहता है। उसे विवाह के लिए राजी करना सरल काम नहीं है, लगता है कि - वह शादी से इन्कार ही कर दे। फिर भी हमारा कर्तव्य तो यही है कि हम उसे शादी के लिए प्रेरित करें, योग्य वधू की तलाश करें; फिर होगा तो वही जो होना होगा । "
महाराजा नाभिराज और माता मरुदेवी ने परस्पर विचार-विमर्श करके और नाना प्रबल युक्तियाँ सोचकर एक दिन राजकुमार ऋषभ से कहा - "आओ पुत्र ऋषभ ! हमें तुमसे एक बहुत जरूरी बात करनी है। "
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